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के कारण आध्यात्मिक विकास का मार्ग अवरुद्ध हुआ है । अतः जिस किसी भी साधक को अपनी आत्मा का विकास साधना हो उसे सर्वप्रथम पहला निर्णय यह करना होगा कि ... आत्मा पर से कर्मों की कालिमा कम करनी ही है। और इसके लिए पहले वर्तमान काल में जो पाप की प्रवृत्ति हो रही है वह बंध करनी जरूरी है। और इसके लिए धर्म आराधना करनी अत्यन्त आवश्यक है । धर्म भी कैसा चाहिए? एक तरफ नए पाप लग रहे हैं उसे रोककर आत्मा को बचाए. तथा दूसरी तरफ पुराने लगे हुए अशुभ कर्मों का क्षय करे । इसके लिए धर्म में सुंदर व्यवस्था सर्वज्ञ भगवंतों ने की है । जिसमें संवर तथा निर्जरा नामक दोनों धर्मों की सुंदर व्यवस्था की है। संवर आले हुए कर्मों को रोकने का काम करता है तथा निर्जरा भूतकाल के लगे हुए कर्मों को नष्ट करके कर्माणुओं को आत्म प्रदेशों से अलग करने का काम करता है। निर्जरा के आधार पर आत्मशुद्धिनिर्जरा
एक शरीररूपी तपेले (भगोने) 20522012000
| में आत्मा और कर्म दोनों दूध-पानी पान शरीर रुप ।
| की तरह मिले हुए मिलित अवस्था में भगोला । दूध + पानी जैसे
हैं। नीचे तप (ताप) तापक से प्रकट की R K आत्मा+कर्म हुई अग्नि तुल्य है। अब जैसे जैसे
अग्नि प्रकट होती हुई बढती जाती है. तप रुप अग्नि वैसे वैसे दूध में अग्नि फैलती जाती
है, और दूध में मिश्रित पानी जलकर भाप बनकर उडता जाता है। ठीक उसी तरह आत्मा और कर्म दोनों
मिश्रित अवस्था में है। बाह्य-आभ्यन्तर कक्षा के तप के कारण तापरूप गर्मी आत्म प्रदेशों में प्रवेरा करती है और शीघ्र ही आत्मप्रदेशों पर लगे हुए कर्माणुओं को दूर करती है । आत्मप्रदेशों से कर्माणुओं का वियोग इसी का नाम निर्जरा है। निर्जरा जितने प्रमाण में होगी उतनी ही आत्मशुद्धि होगी । इसलिए आत्मशुद्धि करने के लिए अत्यन्त आवश्यक है निर्जरा धर्म का आचरण ।
चित्र में आप स्पष्ट देखेंगे कि काली श्याम कर्माणुओं से ग्रस्त ऐसी आत्मा जितने जितने प्रमाण में निर्जरा धर्म का शुद्ध आचरण करेगी उतने प्रमाण में कर्माणु आत्मप्रदेशों
क्षपकणि के साथ का आगे प्रयाण
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