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+ ५ + ५ = १७० तीर्थंकर भगवान उत्कृष्ट रूप से हो सकते हैं । यहाँ दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ भगवान जब हुए थे तब समस्त २ ॥ द्वीप रूप क्षेत्र में कुल मिलाकर १६० + ५ + ५ = १७० तीर्थंकर उत्कृष्ट से हुए थे। इसीलिए कहा है
वर कणय-संख-विहुम-मरगय घण संन्निहं विगय मोहं।
सत्तरिसयं जिणाणं सव्वामर पूईयं वंदे ।। कनक अर्थात् सोने के जैसे श्रेष्ठ सुवर्ण वर्ण वाले, शंख जैसे गौर वर्णवाले, विद्रुम, तथा मरकतमणी जैसे एवं घने श्याम बादलों जैसे रंगवाले ऐसे वर्णवाले १७० तीर्थंकर भगवान जो रागद्वेषरहित वीतराग हुए हैं जिनको सभी देवताओं ने पूजा है, उनको मैं भी वंदन करता हूँ । इस तरह तीर्थंकर भगवान महाविदेह क्षेत्र में सतत-निरंतर होते ही रहते
अष्ट महाप्रातिहार्य से सुशोभित तीर्थंकर
अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः दिव्यध्वनिष्चामरमासनं च ।
भामंडलं दुंदुभिरातपत्रं, सत्तातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ।। तीर्थंकर नामकर्म की उत्कृष्ट पुण्यप्रकृति के उदय काल में तीर्थंकर बननेवाले तीर्थंकर भगवानों के आठ प्रकार के सुंदर अतिशयों की प्राप्ति होती है । इससे वे तीर्थंकर भगवान सुशेभित होते हैं। इन्हें प्रातिहार्य कहते हैं। वैसे प्रातिहार्य शब्द का अर्थ होता है "अंगरक्षक" । जैसे अंगरक्षक सदा ही राजादि के साथ ही रहते हैं वैसे ही ये आठों प्रातिहार्य अंगरक्षक की तरह सदाकाल साथ में ही रहते हैं । इनके प्रतीक चिन्ह इस प्रकार हैं1250
अशोकवृक्ष
MIHIROINDIA
AIMIMIN
TIMILAIMIMIT
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आध्यात्मिक विकास यात्रा