________________
कैसे घटता है? यह सुसंगत कैसे होगा? शिष्य की इस शंका के उत्तर में गुरुदेव स्वयं २ गाथा से उत्तर देते हैं
वपुषोऽत्रातिसूक्ष्मत्वात्छीघ्रं भावी क्षयत्वतः । कायकार्यासमर्थत्वात्, सति कायेऽप्ययोगता ।। १०८ ।। तच्छरीराश्रयादृध्यानमस्तीति न विरुध्यते।
निजशुद्धात्मचिद्रूप-निर्भरानन्दशालिनः ।। १०९॥ शास्त्रकार महर्षी फरमाते हैं कि.. इस अयोगी गुणस्थान में सूक्ष्म काययोग होते हुए भी अयोगीपना जो कहलाता है वह कैसे?... अतः कहते हैं कि.. काया इतनी सूक्ष्मतम क्रियावाली रहती है कि जिससे अतिसूक्ष्मपना गिना जाता है । उस सूक्ष्म काय योग का भी शीघ्र ही क्षय होनेवाला होने के कारण...."कायकार्यासमर्थत्वात्" अर्थात् शरीर का जो कार्य उसे साधने में काया असमर्थ होने आदि कारणों से काया विद्यमान होते हुए भी... अयोगीपना उचित है।
अब दूसरे समाधान के विषय में कहते हैं कि..."तच्छरीरत्वात्” अर्थात् तथाप्रकार के शरीर के अस्तित्व के आश्रय से ध्यान भी हो सकता है, इसमें कोई विरोध होना संभव नहीं है । किसे विरोध नहीं है ? मात्र अयोगी गुणस्थानवर्ती भगवान् कर सकते हैं। अपने निर्मल परमात्म ज्ञान स्वरूप में तन्मय होने से उत्पन्न हुआ परमानन्दयुक्त होते हैं । अर्थात् ऐसे अयोगी भगवान को भी सूक्ष्मकाय योगवाली काया के आश्रय से ध्यान हो सकता है। संभव है।
यहाँ गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकार अयोगी गुणस्थान पर सूक्ष्मकाययोग मानते हैं। जबकि अन्य शास्त्रकार महर्षि अयोगी गुणस्थान पर सूक्ष्म काययोग का भी अभाव मानते हैं। इतना अल्पमात्र मतभेद है । सामान्य बात है। निश्चय और व्यवहार से ध्यान का स्वरूप
आत्मानमात्मनात्मैव, ध्याता ध्यायति तत्त्वतः ।
उपचारस्तदन्यो हि व्यवहारनयाश्रितः ।। ११० ।। तत्त्वतः अर्थात् निश्चय नय की दृष्टि से ... आत्मा स्वयं ध्याता अर्थात् ध्यान का कर्ता है, और वही कारणभूत “साधनभूत” ऐसे आत्मा के द्वारा कर्माधीनपना धारण करनेवाली आत्मा ही ध्याता है। यहाँ स्पष्ट रूप से अष्टांगयोग की प्रवृत्तिरूप दूसरा जो
विकास का अन्त “सिद्धत्व की प्राप्ति"
१३५९