Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 446
________________ T तरह पूरी चौबीशी के चौबीशों तीर्थंकर भगवन्तों के शासनों की परंपरा चलती रहती है। लेकिन वर्तमान काल के इस अवसर्पिणी काल की चौबीशी जो भ आदिनाथ से भ. महावीरस्वामी तक की है इसमें नौंवे तीर्थकर श्री सुविधिनाथ भ. का तीर्थ - शासन चल रहा था ... और अन्त में आते-आते वह विच्छेद हो गया और अभी १० वे तीर्थंकर श्री शीतलनाथ भ. का शासन स्थापित नहीं हुआ है, इस बीच के अन्तराल काल में अतीर्थ या तीर्थविच्छेद काल रहा । लेकिन इस अतीर्थ काल में कोई मोक्ष में गया हो ऐसे दृष्टान्त का नामोल्लेख कहीं उपलब्ध नहीं होता है । अतः इन दोनों प्रकार के तीर्थ उच्छेद अर्थात् अतीर्थ काल में कोई भी जीव जातिस्मरण ज्ञान पाकर उससे पूर्वजन्म विषयक वृत्तान्त जानकर वैराग्यवासित होकर सम्यग् दर्शनादि द्वारा . आध्यात्मिक विकास के इन सोपानों पर आरूढ होकर क्षपक श्रेणि आदि द्वारा केवलज्ञान पाकर मोक्ष में चला जाय तो वह अतीर्थिक मुक्त कहा जाता है । ऐसा पन्नवणा आगम शास्त्र की वृत्ति में उल्लेख उपलब्ध होता है । ऐसे अतीर्थ सिद्ध बनकर मोक्ष में जानेवालों की गणना १५ प्रकार के अन्तर्गत गई है। इसमें मरुदेव माता के नाम का उल्लेख है । 1 I ५) गृहस्थलिंग सिद्ध - यहाँ पर लिंग शब्द चिन्ह - पहचान हेतुक बताया गया । गृहस्थ की बाह्य पहचान गृहस्थाश्रमी वेशभूषा से होती है । जबकि ..... . गृहस्थाश्रम के त्यागी विरक्त-वैरागी जो साधु-सन्त महात्मा हैं उनकी बाह्य पहचान बाहरी वेशभूषा से होती है । ऐसी वेशभूषा को परिधान करनेवाले को एक अन्जान बच्चा भी पहचान सकता है कि ये कौन है ? इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान के पुत्र भरतजी जो इस अवनितल पर इस अवसर्पिणी के प्रथम चक्रवर्ती थे I जिनके नाम पर इस आर्यावर्त का नाम भारतदेश पडा । ऐसे - वैभव अपार था । भरत चक्रवर्ती छ खंड की ऋद्धि सिद्धि के मालिक थे । राज-पाट - अपने शीषमहल “आरीसा भवन" में थे। सजे हुए आभूषण में से गिरी हुई अंगूठी को देखकर वे ध्यान की धारा में चढ गए। अंगुली को अंगूठी रहित और अंगूठी को अंगुलीरहित देखते-देखते बस, उस आलम्बन से ध्यान की धारा में चढ गए । क्षपक श्रेणि का श्रीगणेश किया । परिणाम स्वरूप १३ वे गुणस्थान पर केवली सर्वज्ञ बने । इस तरह गृहस्थाश्रम में ही केवलज्ञान अनेकों ने पाया है। भरतजी भी केवली सर्वज्ञ बन गए । १४०२ आध्यात्मिक विकास यात्रा

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