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परिमण्डलादि
५ प्रकार के संस्थान वर्ण— ५ प्रकार के गंघ— २ प्रकार के
रस- ५ प्रकार के
स्पर्श— ८ प्रकार के
वेद- ३ प्रकार के
कुल २८ प्रकार होते हैं ।
तथा अदेहता - १ +
निःसंगता - १ +
अरुहता १ +
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इस तरह दूसरी अपेक्षा से भी ३१ गुणवाले सिद्धों को कहे हैं । प्रवचन सारोद्धार ग्रन्थ में इस अपेक्षा से भी ३१ गुणों का विवरण उपलब्ध है । आखिर सिद्ध हुए परमात्मा देहादि पुद्गल संग के अभाव में सर्वथा वर्ण - गंध-रस - स्पर्शादि रहित ही होते हैं । क्योंकि ये वर्णादि सभी पुद्गल के गुणधर्म हैं आत्मा के है ही नहीं । चेतनात्मा वैसे भी वर्ण- गंधादि रहित-अरूपी-अवर्णी आदि गुणों से युक्त है। अतः वर्णादि संग का कोई सवाल ही नहीं होता है । हाँ ... जब देहधारी अवस्था में आत्मा थी तब देह के रूप-रंगादि निमित्तों से पहचानी जाती थी । परन्तु सिद्ध बनने पर अब देह सर्वथा छूट जाता है । अतः शरीरादि जन्य पहचान कुछ भी शेष रहती ही नहीं है । अतः अशरीरी अवस्था में पुद्गल के किसी भी अंश का कोई संबंध न रहने पर अशरीरी - अदेही के स्वरूप में ही पहचानी जाती है इस तरह भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से सिद्धों के गुणों की विवक्षा की गई है।
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अनुयोग द्वारों से मोक्ष की सिद्धि
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संतपय-परुवणया, दव्वपमाणं च खित्त फुसणा य । कालो अ अंतरं भाग भावे अप्पा बहुं चेव ॥ ४३ ॥
जैन शास्त्रों में पदार्थों की विशद विचारणा करने के भिन्न-भिन्न मार्ग (द्वार) बताए हैं। उन द्वारों से अनेक दृष्टियों से पदार्थों की विशद विचारणा की जाती है, अतः उसे अनुयोग द्वार कहते हैं । यहाँ ऐसे नौं अनुयोग द्वारों के जरिए मोक्ष की विचारणा की गई है । - १) सत्पद प्ररूपणा द्वार, २) द्रव्य प्रमाण द्वार, ३) क्षेत्र द्वार, ४) स्पर्शना द्वार, ५) काल
आध्यात्मिक विकास यात्रा