Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 472
________________ सिद्ध बनने के पहले वे कैसे थे ? किस अवस्था में थे ? किस स्वरूप में थे और किस अवस्था - स्वरूप में से वे मुक्त हुए हैं ? मोक्ष में गए हैं ? इसलिए गति - क्षेत्रादि की सभी दृष्टियों से विचार करना जरूरी है । इसमें भूतकालीन तथा वर्तमानकालीन दृष्टि अनुसार विचार किया जाता है । १) क्षेत्र द्वार - ( स्थान – जगह विशेष ) सिद्ध बनने का क्षेत्र कहाँ से हैं ? अतः भूत कल की दृष्टि से ४५ लाख योजन प्रमाणवाले ॥ द्वीप परिमित मनुष्य क्षेत्र है । इसमें से ही कोई सिद्ध बन सकता है । इसमें भी सिर्फ १५ कर्मभूमि में जन्मा हुआ संज्ञि पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव ही मोक्ष में जाएगा। फिर भी संहरण की दृष्टि से समस्त मनुष्य क्षेत्र में से सिद्ध होते हैं । वर्तमानकालिक दृष्टि से समस्त जीवों का सिद्ध क्षेत्र आत्मा प्रदेश या आकाश प्रदेश है । २) काल द्वार - कोई भी मोक्ष में जाएंगे तो किसी न किसी काल में ही जाएंगे । अतः मोक्ष में जाने में काल भी सहयोगी तत्त्व है। कौन सा काल मोक्ष में जाने में है और कौन सा काल प्रतिकूल है ? इसका विचार काल द्वार में किया जाता है । काल 'अनुकूल तत्त्व के विषय की जानकारी पहले भी दे चुके हैं, अतः कृपया वहाँ से पुनः पढकर काल के विषय को पक्का कर लें । कालचक्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ऐसे क्रमशः चढते और उतरते काल की व्यवस्था है । और दोनों में ६-६ आरे होते हैं । इनमें से १ और दूसरे आरे में मोक्षगमन सर्वथा निषेध ही है । अतः मोक्षगमनयोग्य वह काल ही नहीं है । तीसरे आरे के अन्त में जब प्रथम तीर्थंकर भगवान उत्सर्पिणी। 2 3 १४२८ 4 1 3 2 अवसर्पिणी होते हैं और धर्मतीर्थ की स्थापना करेंगे तब मोक्षगमन जीवों का शुरू होगा। चौथा आरा संपूर्ण मोक्षगमनयोग्य आरा कहलाता है । क्यों कि चौथे १ कोडाकोडी – न्यून ४२००० वर्ष के आरे में २३ तीर्थंकर भगवान होते हैं । और असंख्य जीव इसी में मोक्ष में जाते हैं । अतः इसे तो मोक्ष की बढिया सीजन का काल कहा जाता है । अवसर्पिणी के ३ रे के शेष भाग में और ४ थे आरे में जन्मे हुए मोक्ष में जाते हैं। चौथे आरे में जन्मा हुआ हो आध्यात्मिक विकास यात्रा

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