Book Title: Aadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Author(s): Arunvijay
Publisher: Vasupujyaswami Jain SMP Sangh

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Page 454
________________ सोपानों पर आरूढ होने रूप आत्मध्यान साधना एक ही है । यही जरूर अनुकरणीय है । उपादेय है । अतः इस लाल बत्ती को ही जरूर ध्यान में रखें। ७ स्वलिंग सिद्ध-सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवंतों ने जिस प्रकार के साधु धर्म की प्ररूपणा की हैं, जैसा साधु धर्म बताया है, ठीक उसी श्रमण धर्म की साधना करते हुए जो गुणस्थान के सोपानों के मार्ग पर चढते हुए ध्यानादि की साधना में आगे बढता-बढता क्रमशः केवलज्ञान पाकर मोक्ष में जाए उसे स्वलिंगी सिद्ध कहते हैं जिसने सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान के शासन में ही जन्म लिया हुआ हो, उसी धर्म में पनपकर पलकर उसी वीतरागी के धर्म के आचार-विचारों के संस्कारों से संस्कारित बनकर जो क्रमशः चौथे गुणस्थान MODI पर सम्यग् दर्शन प्राप्त कर सम्यक्त्वी बने, फिर ५ वे गुणस्थान पर देशविरतिधर बने, और छठे गुणस्थान पर दीक्षा ग्रहणकर साधु बने वह स्वलिंगी कहलाएगा। अब आगे.... सिद्ध बनने की दिशा में.... अप्रमत्त बनकर अपूर्वकरण के ८ वे गुणस्थान से क्षपक श्रेणि का शुभारंभ करे.... इस तरह गुणस्थानों की साधना के सोपानों पर क्रमशः आगे बढ़ता ही जाय.... और अन्त में केवलज्ञान पाकर मोक्ष में जाय उसे स्वलिंगी सिद्ध कहते हैं । सच देखा जाय तो मुख्य राजमार्ग तो स्वलिंगी सिद्ध का ही है । अन्यलिंगी सिद्ध तो अपवादिक मार्ग है । विरले ही कोई अन्यलिंगी सिद्ध बनते हैं। साध्वीजी चंदनबाला, मृगावतीजी आदि स्वलिंगसिद्ध के भेद के दृष्टान्त हैं। चौबीसों तीर्थंकर भगवानों के चतुर्विध संघ के परिवार से जिनमें भी साधु-साध्वी बनकर मोक्ष में गए हैं वे सभी स्वलिंगी सिद्ध कहलाते हैं। ८) स्त्रीलिंग सिद्ध- संसार की मनुष्य जाति में स्त्री, पुरुष और नपुंसक ३ प्रकार हैं । यह तो कर्मजनित प्राकृतिक व्यवस्था है । वेद मोहनीय कर्म के कारण कोई स्त्री, कोई पुरुष, और कोई नपुंसक इस तरह तीनों होते हैं । कर्मजन्य उपाधि के कारण ही ये भेद होते हैं । परन्तु मूलभूत अंदर आत्मा तो समान ही है। आत्मा निरंजन-निराकार है। आत्मा को न लिंग है न देह न जाति-पाति, कुछ भी नहीं है। अतः सबकी आत्मा द्रव्य-गुण के स्वरूप से समान सत्तावाली है। दूसरी तरफ केवलज्ञानादि सभी आत्मगत गुण है न कि शरीरगत । इसलिए ये सभी गुणस्थान भी 7 १४१० आध्यात्मिक विकास यात्रा

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