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से ३० वर्ष तो गृहस्थावस्था में बीत गए । दीक्षा ग्रहण पश्चात् के भी १२ ॥ वर्ष तो छद्मस्थावस्था के बीत गए । प्रभु को ४२ ॥ वर्ष की आयु में केवलज्ञान प्राप्त हुआ । प्रभु सर्वज्ञ - सर्वदर्शी बने । तब जाकर प्रभु ने धर्मतीर्थ की स्थापना की । भ० महावीर का स्वयं का स्थापित धर्मतीर्थ - शासन उनकी विद्यमानता के काल में ३० वर्ष तक वे स्वयं देख सके । बस, उनका ७२ वर्ष का पूर्ण आयुष्य पूरा हो जाने के पश्चात् आज दिन तक भी श्री वीर प्रभु का संस्थापित शासन चल ही रहा है। इसे २५२२ वर्ष आज बीत रहे हैं । इसी तरह आगामी भविष्य काल के साढे अठारह हजार वर्ष और श्री वीर प्रभु का शासन चलेगा । क्यों कि पंचम आरे का कालमान २१००० वर्ष का है । इस २१००० वर्ष के लम्बे काल में भले ही तीर्थंकर परमात्मा सदेह से स्वयं हमारे बीच विद्यमान नहीं है लेकिन उनके द्वारा संस्थापित - प्रतिष्ठित यह धर्मशासन चल ही रहा है । अनेक जीवों पर उपकार हो रहा है । अनेक जीव धर्म पा रहे हैं। आराधना कर रहे हैं। अनेक मुमुक्षु आत्मा संसार का त्याग करके चारित्रधर्म पा रहे हैं, दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इस तरह अनेक पुण्यात्माओं का कल्याण प्रभु के इस शासन से हो रहा है ।
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सिर्फ सदेह विद्यमान तीर्थंकर भगवान नहीं है तो इस कमी की जैन संघ ने मूर्ति - प्रतिमा भराकर पूर्ति कर दी । भव्य विशाल - प्रासाद (मंदिर) बनाकर प्रभु की मूर्ति - प्रतिमा उसमें प्रतिष्ठित करके... उन्हें ही साक्षात् भगवान स्वरूप मानकर अनेक जीव धर्माराधना करके आत्मकल्याण कर रहे हैं। नियम यह है कि... " तित्थयर समो सूरि" तीर्थंकर के समान उनके समकक्ष ही सूरि अर्थात् आचार्य भगवन्त हैं । तीर्थंकर भगवन्तों की अनुपस्थिति के काल में उनकी पट्टपरम्परा में आते महापुरुष आचार्य पद पर आरूढ होते हैं, बिराजमान होते हैं और वे इस धर्मतीर्थ - शासन को चलाते हैं । अतः आचार्य भगवान् तीर्थंकर के समकक्ष उनके प्रतिनिधि कहलाते हैं । जैसे राजा की अनुपस्थिति में राजकुमार राजा का प्रतिनिधि अनुगामी कहलाता है, ठीक उसी तरह आचार्य भगवन्त तीर्थंकर भगवान्तों के अनुगामी - प्रतिनिधि कहलाते हैं । इस तरह परंपरा में यह शासन चलता ही रहता है । और अनेक भव्यात्माओं का कल्याण भी होता ही रहता है। आज भी साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध संघ विद्यमान है । तथा भविष्य में भी रहेगा । अतः कलिकाल सर्वज्ञ जैसे महापुरुष हेमचन्द्राचार्य महाराज ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हुए लिखते हैं कि ... “ नमोऽस्तु तस्मै तव शासनाय च । " हे भगवन् ! आपको तो नमस्कार हो ही हो, लेकिन आपके “शासन” (धर्मतीर्थ) को भी नमस्कार हो ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा