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व्यवस्था के कारण ही लोक - अलोक का भिन्न-भिन्न अस्तित्व है । इनमें जैसा कि पहले से पढ आए हैं कि... धर्मास्तिकाय गतिसहायक द्रव्य है और ठीक इससे विपरीत गुणधर्मवाला अधर्मास्तिकाय द्रव्य है । यह स्थितिस्थापक सहायक द्रव्य
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। और ये दोनों द्रव्य लोक की चरम सीमा - ( लोकान्त, लोकाग्र) तक बरोबर रहते ही हैं । बस, अलोक में. इनका एक भी प्रदेश नहीं रहता है इसलिए गति सहायक धर्मास्तिकाय
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द्रव्य जहाँ तक अर्थात् लोकान्त तक होने के कारण आत्मा का ऊर्ध्वगमन इसकी सहायता के आधार पर लोकान्त तक ही होगा। गती कर पाएगी। उसके आगे अलोक में धर्मास्तिकाय का एक भी प्रदेश नहीं है, अतः अलोक में गति नहीं होगी । गति का आधार आकाश प्रदेश और गति करने में सहायक धर्मास्तिकाय द्रव्य है । इस तरह इन दोनों द्रव्यों की स्थिति ( का अस्तित्व) दशों दिशाओं के लोकान्त तक बरोबर रहती है आकाशास्तिकाय के प्रदेश लोक में और अलोक दोनों में समान रूप से प्रसरे हुए है ही । उनमें कहीं कोई फरक नहीं है । इनमें धर्मास्तिकाय - अधर्मास्तिकाय के क्षेत्र में उनके साथ रहनेवाले आकाश को लोकाकाश कहते हैं। और उनके बिना रहनेवाले आकाश को अलोकाकाश कहते हैं । लोकक्षेत्रगत आकाशप्रदेशों के आधार पर धर्मास्तिकाय की सहायता के बलपर गति करती हुई ऊर्ध्वगमन करके लोकान्त - लोकाग्र भाग में पहुँची हुई आत्मा अधर्मास्तिकाय द्रव्य की स्थितिस्थापकता के गुण की सहायता लेकर स्थिर होती है। बस, फिर अनन्तकाल तक उसी स्वरूप में स्थिर रहना है। अतः यह सिद्धान्त शाश्वत स्वरूप में बनता है कि... कभी भी कोई भी सिद्ध बननेवाली आत्मा अलोक में जाती ही नहीं है । मात्र लोकान्त तक ही जाती है। और धर्मास्तिकाय की सहायता के आधार पर जाती है और अधर्मास्तिकाय की सहायता के आधार पर अनन्त काल तक वहीं स्थिर रहती है ।
अधमास्तिकाय.
आकाश प्रदेश
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति "
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