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भाग में वहाँ धर्मास्तिकाय द्रव्य का अस्तित्व है, फिर भी अब गति नहीं होती है। क्योंकि अब कोई पूर्वप्रयोगादि कुछ भी नहीं है। अतः अब एक बार सिद्धात्मा जिस लोकाकाश के अन्तिम लोकान्त के आकाश प्रदेश पर स्थिर हो गई वह अनन्त काल तक वैसी स्थिर ही रहेगी। अब अनन्तकाल में कभी भी उसे हिलना भी नहीं है । और समीपवर्ती पास के आकाश प्रदेश को भी छूना तक नहीं है । मतलब यह है कि... अब एक मिलिमिटर भी गति करनी ही नहीं है । होती ही नहीं है क्योंकि अब पूर्वप्रयोगादि कोई हेतु नहीं हैं।
पूर्वप्रयोगादि या बन्धविच्छेदादि हेतुओं में कर्म का स्पष्ट निर्देश ख्याल आता है। १४ वे गुणस्थान पर अयोगी अवस्था में भी जब... देह छोड रहे थे तब शैलेशीकरण, योग निरोध, कर्मक्षय आदि करते थे, तब जो कर्मसंसर्ग साथ था उससे छूटते समय के दबाव के कारण छूटते ही ऊर्ध्वगति स्वाभाविक हो जाती है । जैसे धनुष्य पर से तीर छूटते ही त्रिज्या के खिंचाव, सिकुडन आकुंचन रूप क्रिया से तीर की तीव्र गति होती है। वैसे ही देह और कर्म छोडते समय के दबाव के कारण जीव की ऊर्ध्व गति सहज-स्वाभाविक गती होती है । जैसे स्थावर की वनस्पति की कक्षा में पड़ा हुआ एरण्डबीज स्वाभाविक रूप से उछलता है। ठीक उसी तरह देह और कर्म के बन्धन विच्छेद होते ही जीवात्मा उछलकर सीधी ७ राजलोक की गति करके ऊपर लोकान्त तक पहुँच जाती है।
१ समय में असंख्य योजन गमन
१ रज्जु अर्थात् १ राज लोक जो कि असंख्य योजन के अन्तर का होता है, ऐसे ७ राज लोक का अन्तर है मनुष्य क्षेत्र से । तिmलोक की ढाई द्वीप की मनुष्यभूमि पर से जीव मोक्ष में जाता है अतः ढाई द्वीपरूप मनुष्यक्षेत्र से ऊपर लोकान्त ७ राज लोक अर्थात् असंख्य योजन दूर है। इतनी असंख्य योजन लम्बी गति जीव करके जाएगा तब लोकान्त-सिद्धशिला पर पहुँचेगा। लेकिन आपको सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह जानकर होगा कि.... अपनी इस धरती पर से सिद्ध होनेवाला जीव १ समय मात्र काल में ही असंख्य योजनों का-७ राजलोक का अन्तर काटकर लोकान्त तक पहुँच जाता है । इस गमन में १ से दूसरा समय कभी भी नहीं होता है । अर्थात् समयान्तर नहीं होता है । और भी स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार महर्षि कहते हैं कि.... जिस समय देह छोडते हैं उसी समय लोकान्त के अन्तिम आकाश प्रदेश पर स्थिर हो जाते हैं। बस, समयान्तर अर्थात् समय का परिवर्तन कभी होता ही नहीं है । वही समय रहता है । बदलता ही नहीं है । १ समय इतना सूक्ष्म है कि जिसकी कालगणना करना भी हमारी बुद्धि के बाहर की बात है । जैसे
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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