________________
'शिला' शब्द पृथ्वीवाचक होने से पत्थर की शिला कहते हैं। जी हाँ... पाषाण की होने से यह पृथ्वीकाय के एकेन्द्रिय जीवों के पिण्ड से निर्मित है । अतः पृथ्वीकायिक है। स्फटिकरलमय है । सादृश्यता की तुलना देने हेतु सिद्ध स्फटिक रल की उपमा दी है । यह पार्थिव देहमय है । अतः नामकरण करने में वैसे पाषाणा शिला कह सकते थे? परन्तु निवास की प्राधान्यता की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का निवास उसपर होने के कारण सिद्धशिला नामकरण ही उचित है । यद्यपि सिद्ध परमात्मा इस शिला का स्पर्श मात्र भी नहीं करते हैं । उनको इस शिला पर बैठना भी नहीं है । वे तो लोकान्त का स्पर्श करते रहते हैं। सिद्धशिला
अलोक के आकाश को जहाँ लोक क्षेत्र का ऊपरी अन्तिम किनारा जहाँ स्पर्श होता है उस लोकान्त की सीमा से नीचे की ओर १ योजन के
अन्तर के पश्चात् सिद्धशिला नामक पृथ्वी आई हुई है । 'सिद्ध' शब्द सिद्ध भगवन्तों का वाचक है और 'शिला' शब्द यहाँ पृथ्वीवाचक है । जैसे वैमानिक देवलोक की पृथ्वियाँ है, मनुष्य क्षेत्र (लोक) की असंख्य द्वीपों की पृथ्वियाँ है, या सात नरक क्षेत्र की सातों पृथ्वियाँ है, बस, वैसी ही यह सिद्धशिला भी पृथ्वीविशेष है । यहाँ सिद्धों का निवास इसके ऊपर होने से उनका नाम साथ में जुडने से सिद्धशिला के रूप में पहचानी जाती है। यह पृथ्वी स्फटिकरत्नमय है। बिल्कुल
: स्फटिकमय शुद्ध सफेद है। ऊपरी भाग में तो सपाट है। थाली के जैसी पूरी गोल है । लेकिन एक दिशा से चित्र देखने पर अष्टमी के चांद की तरह दिखाई देगी परन्तु मूलतः पूर्ण गोल है। विष्कंभ अर्थात् लम्बाई-चौडाई माप–प्रमाण में ४५ लाख योजन परिमित है। मध्यलोक में मनुष्य क्षेत्र जिसमें असंख्य द्वीप-समुद्र हैं । और उसके भी मध्य में अढाई द्वीप-समुद्र हैं और वे भी ४५ लाख योजन विस्तारवाले ही हैं। अतः ४५ लाख योजन विस्तारवाला ही मनुष्य क्षेत्र अढाई द्वीप प्रमाण है। ठीक उसी तरह उतनी ही माप की ऊपर उल्टे छत्र समान
२॥ दीप-४५ लाख यो. असंख्य द्वीप समुद्र
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
१३६७