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तब जाकर वह सिद्ध बनने की भ्रमण कक्षा में आएगा । तब मुक्ति का लक्ष बनेगा । आखिर “कृत्स्न” = सर्व कर्मों का क्षय होगा, तब जाकर उस जीव की मुक्ति होगी । इसकी पूरी प्रक्रिया समझने के लिए ... तथा सूक्ष्म स्वरूप एकेन्द्रिय के निगोद जीव से लेकर मुक्ति तक का संपूर्ण स्वरूप समझने के लिये ही प्रस्तुत पुस्तक है । इसे साद्यन्त पूरी पढने-समझने से ही संसार से मुक्त होने की पूरी प्रक्रिया समझ में आएगी । अतः मा क्षेत्र मुक्ति ही मुक्ति नहीं अपितु कर्म मुक्ति, भव मुक्ति आदि के सभी प्रकार अच्छी तरह समझने अनिवार्य हैं ।
१) पूर्व प्रयोग -
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तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सूत्र में पूर्व प्रयोग शब्द का प्रयोग किया है । पूर्व शब्द " पहले " के अर्थ में है । पहले की क्रिया का जो प्रयोग किया हो उससे होनेवाली आगे की क्रिया का प्रयोग यह सर्व अभिप्रेत है । उदाहरणार्थ जैसे चालु पंखे की 'स्वीच ओफ' अर्थात् बटन बंद कर देने के बाद भी थोडी देर तक वह चलता ही रहता है । यद्यपि बंद होने की दिशा में ही है । अतः गति की तीव्रता जरूर कम हो गई और मन्द बन चुकी है, फिर भी स्थिर होने में अभी भी समय लगेगा, तब तक वह गति में घूमता ही रहेगा। पहले तो बिजली उसकी तीव्र गति में कारण थी, अब बिजली का करन्ट बन्द हो चुका है, कोई कारण नहीं है फिर भी बराबर घूम रहा है पंखा ।
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इसी तरह दूसरा दृष्टान्त कुम्हार के चाक का है । घडे बनानेवाला कुम्हार जिस चाक पर घडे बनाता है वह मिट्टी का ढेला चाकपर रखकर चाक को दंड से घुमाता जाता है इसी
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति "
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