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निवृत्ति नहीं सूचित करता है । अस्तित्व बताता है । अतः अयोगी अवस्था में भी सूक्ष्म काय के साथ सूक्ष्मक्रिया का अस्तित्व सूचित करती है । यह सूक्ष्म क्रिया आत्मस्पंदनमात्र रहती है। __ अब अयोगी अवस्था में चौथे प्रकार के शुक्लध्यान में जो समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्तिरूप है, इसमें सूक्ष्म क्रिया की भी निवृत्ति सर्वथा हो जाती है । इसलिए समुच्छिन्न शब्द का प्रयोग किया है । जिस ध्यान में सूक्ष्मयोगात्मक अर्थात् सूक्ष्म काययोगरूप क्रिया भी सर्वथा नहीं रहती है । उसमें क्रिया का अभाव सर्वथा हो जाता है । इसलिए चौथे भेद के लिए विशेष नामकरण यहाँ पर इस प्रकार किया है । तत्त्वार्थसूत्र में शुक्लध्यान के चौथे भेद का नाम- “व्युपरतक्रियानिवृत्ति” रखा है । इस नाम में “व्युपंरतक्रिया और अनिवृत्ति" ये दो शब्द प्रयुक्त हैं । जिसमें सर्वथा क्रिया रुक गई है ऐसा स्वरूप “व्युपरतक्रिया” का है। और जिसका पतन नहीं है उस अनिवृत्ति शब्द से द्योतित किया है। अब यह स्पष्ट होता है कि... जिसकी १४ वे गुणस्थान में अयोगी अवस्था में मन-वचन-काया के तीनों योगों की क्रिया का सर्वथा अभाव हो चुका है, अर्थात् अब तीनों में से किसी भी योग की स्थूल या सूक्ष्म किसी भी प्रकार की क्रिया शेष रही ही नहीं है, ऐसे अयोगी महात्मा जो अन्तिम कक्षा का ध्यान करनेवाले ध्याता हैं, उनके अध्यवसाय या विशिष्ट परिणाम का आंशिक भी पतन संभव ही नहीं है, ऐसे ध्यान को व्युपरतक्रियानिवृत्ति, या समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति कहते हैं । इस प्रकार का शुक्लध्यान का चौथा चरम भेद १४ वे अयोगी गुणस्थान के अल्प सीमितकाल में ही होता है। ऐसा ध्यान “मुक्तिवेश्मन" अर्थात् मोक्ष के प्रवेशद्वार समान है । मुक्ति रूपी महल में जाने के लिए प्रवेश द्वार समान है। क्योंकि बस, इस प्रकार के ऐसे ध्यान से अनन्तर समय में मोक्ष की ही प्राप्ति होती है।
अयोगी को ध्यान का संभव कैसे? . . देहाऽस्तित्वेऽप्ययोगत्वं, कथं ? तद् घटते प्रभो।
देहाऽभावे तथा ध्यानं, दुर्घटं घटते कथम्? ॥ १०७ ।। शास्त्रकार महर्षी स्वयं यहाँ शंका उठाते हैं कि... हे प्रभु । “देहास्तित्वे" अर्थात् काया का सूक्ष्मयोग होने पर योगीपना कहलाता है । फिर भी “अयोगी” ऐसा क्यों कहते हो? यह कैसे घटेगा? कैसे सुसंगत बैठेगी बात? इसी तरह “देहाभाव” अर्थात् सर्वथा देह का अभाव हो अर्थात् सर्वथा काययोग का अभाव ही हो तो देह के अभाव में ध्यान
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आध्यात्मिक विकास यात्रा