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अतः शाश्वत सिद्धान्त यही है कि ज्ञान आत्मा को ही होता है । आत्मा के सिवाय आत्मेतर किसी भी पदार्थ को ज्ञान होना कदापि कभी भी संभव नहीं है। इसलिए शरीर को ज्ञान होने की कल्पना करना भी सर्वथा मुर्खता है। अतः शरीर चाहे स्त्री का हो या पुरुष का किसी भी शरीर को ज्ञान प्राप्त होता ही नहीं है । अतः आत्मा को ही ज्ञान होता है यही सिद्धान्त स्वीकारना श्रेयस्कर है । स्त्री शरीर तथाप्रकार के कर्मोदय के कारण होता है और पुरुष शरीर तथाप्रकार के कर्मोदय के कारण बनता है । और नपुंसक को उस प्रकार के कर्मों के कारण वैसा शरीर मिलता है । वेदमोहनीय के तीनों वेदों के कारण वैसा होता
ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम और क्षय से ज्ञान
मतिज्ञान
आत्मा
मतिज्ञान . श्रुत ज्ञान .
मतिज्ञानश्रुत ज्ञान. अवधि ज्ञान मनः पर्यवज्ञान.
केवल ज्ञान पूर्ण ज्ञान
ज्ञान आत्मगुण है । चेतन आत्मा की चेतना शक्ति का मुख्य घटक ज्ञान गुण है। वह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण आवृत्त (आच्छादित) ढका हुआ रहता है। क्षायोपशमिक = क्षय + उपशम (मिश्र) भाव की प्रक्रिया से मति श्रुत अवधि और मनःपर्यव ज्ञान प्रगट होते हैं । इन ज्ञानों का आवरक जो जो कर्म है वह भी तथाप्रकार के गुण के नाम से ही पहचाना जाता है । अतः मतिज्ञानावरणीय कर्म, २) श्रुतज्ञानावरणीय कर्म, ३) अवधिज्ञानावरणीय कर्म, ४) मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म और ५) केवलज्ञानावरणीय कर्म इन ५ नामों से पहचाने जाते हैं। जैसे जैसे जिस जिस ज्ञान का आवरक रूप कर्म का जितना क्षयोपशम होता जाएगा वैसे वैसे उतने अंश में ज्ञान गुण प्रगट होता जाएगा। आप चित्र में देखेंगे- १ में आत्मा ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत्त है। २रे चित्र में मतिज्ञान थोडा सा प्रगट है। ३रे में मति के साथ श्रुतज्ञान भी थोडा खुल्ला
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आध्यात्मिक विकास यात्रा