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किसी भी तीर्थंकर ने मरुदेवीमाता की तरह गृहस्थाश्रम में ही हाथी पर बैठे-बैठे केवलज्ञान नहीं पाया । न ही किसी ने भरत चक्रवर्ती की तरह गृहस्थाश्रम में ही रहकर केवलज्ञान पाया है। और न ही किसी ने पृथ्वीचंद्र गुणसागर की तरह लग्नमण्डप की चोरी में हस्तमिलाप में फेरे फिरते हुए केवलज्ञान पाया है । और न ही कभी किसी तीर्थंकर ने कुरगडु मुनि की तरह खाते खाते केवलज्ञान पाया है । जी नहीं ... . तीर्थंकरों ने बरोबर व्यवस्थित रूप से तपश्चर्या करके ध्यान में केवलज्ञान पाया है।
इसलिए केवलज्ञान पाने का राजमार्ग तो तीर्थंकरों का ही योग्य है । १०० में से ९९% लोग तीर्थंकर की तरह ही केवलज्ञान पाते हैं । उपरोक्त जितने दृष्टान्त यहाँ कथा चरित्र के रूप में प्रस्तुत किये हैं वे सब अपवादिक दृष्टान्त हैं। ये राजमार्ग के दृष्टान्त नहीं हैं। बहुत विरल दृष्टान्त हैं । इसीलिए ऐसे अनेक नहीं हुए हैं। मरुदेवी माता के जैसा दूसरा दृष्टान्त नहीं हुआ और न ही लाखों वर्षों में पृथ्वीचंद्र गुणसागर के जैसा दूसरा दृष्टान्त आज दिन तक हजारों लाखों वर्षों के इतिहास में, शास्त्रों में कहीं देखने में नहीं आया । इसलिए ये सभी दृष्टान्त आपवादिक हैं । अतः तीर्थंकरों को जिस तरह केवलज्ञान प्राप्त होता है वही सर्वोत्तम राजमार्ग है । ९९% अधिकत जीवों को इसी रास्ते - इसी तरीके से केवलज्ञान भविष्य में भी होगा। तीर्थंकरों को जिस तरह केवलज्ञान हुआ है इस तरह के दृष्टान्त तो अनेक मिल जाते हैं। अतः यह तरीका अपवादरूप नहीं है, राजमार्ग
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क्या "स्त्री" को केवलज्ञान हो सकता है या नहीं ?
सबसे पहले तो आप एक बात समझ जाइये कि केवलज्ञान शरीर को नहीं अपितु आत्मा को ही होता है । चूंकि यह आत्मागुण है आत्मधर्म है। देह गुण भी नहीं और देह धर्म भी नहीं है । इसलिए शरीर को केवलज्ञान तो क्या मतिज्ञान का अंश मात्र भी नहीं होता है तो केवलज्ञान की तो बात ही कहाँ रही ? जो केवलज्ञान की बात करते हैं वह तों उनके वश की बात भी नहीं है, लेकिन मतिज्ञान-बुद्धि का जो ज्ञान है वह तो सभी जीवों के हाथ की - वश की बात है । कम से कम शरीर को मतिज्ञान भी कर के दिखा दे । अरे ! तिज्ञान का अंशमात्र ही सही इतना भी प्राप्त करा के दिखाए। कभी भी संभव नहीं है। अतः ज्ञान आत्मा की गुणधर्म है । अतः जब भी थोडा या ज्यादा, संपूर्ण या अपूर्ण किसी भी प्रकार का ज्ञान होगा तो भी आखिर वह आत्मा को ही होगा । ज्ञान चेतन का गुण है शरीर का नहीं । क्योंकि शरीर मात्र जड - पुद्गल पदार्थ है । और जड - पुद्गल का गुण कभी
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आध्यात्मिक विकास यात्रा