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९) उपसगों को सहन करना। १०) ध्यान-तप-कायोत्सर्गादि करना। ११) धर्मध्यान से शुक्लध्यान में आरूढ होना। १२) क्षपक श्रेणी का शुभारंभ करना...८ वे गुणस्थान से। १३) ९ वे, १० वे, १२ वे गुणस्थान पर आकर वीतरागी-वीतराग बनना । १४) १३ वे गुणस्थान पर आकर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्यादि गुण
प्रगट करना। १४) समवसरण की रचना होनी, उसमें बैठकर देशना देनी।। १६) अष्ट प्रातिहार्य, ३४ अतिशय, वाणी गुण ३५, १२ गुणादि का होना। १७) अंतःकृद् केवली न बनना । केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् शीघ्र ही आयुष्य का
पूर्ण न हो जाना। १८) त्रिपदी की देशना देना । गणधरों की स्थापना करना। १९) तीर्थ की स्थापना करना । चतुर्विध संघ की स्थापना करना । धर्म की स्थापना
करना। २०) अन्त में आठों कर्मों का क्षय करके निर्वाण पाकर मोक्ष में जाना । अनन्त काल
सक सिद्धात्मा बनकर रहना।
इस तरह स्थूल ऐसे कई नियम हैं जो शाश्वत नियम-शाश्वत व्यवस्था है । अनन्त काल चाहे कितना भी बीत जाय.. । अनन्त तीर्थंकर भगवान चाहे कितने भी हो जाय लेकिन यह शाश्वत व्यवस्था और शाश्वत नियम है। ये सभी मुद्दे तीर्थंकर में होंगे ही। इसके सिवाय अन्य कोई विकल्प ही नहीं है। उपरोक्त बताए नियमों में से एक भी कम होना ही नहीं चाहिए । इसीलिए शाश्वत नियम कहे हैं । जो तीनों काल में होनेवाले तीर्थंकर भगवन्तों में त्रैकालिक शाश्वत रूप से रहेंगे ही रहेंगे। तभी वे तीर्थकर बनेंगे।
अब तीर्थंकरों के लिए केवलज्ञान की प्राप्ति का राजमार्ग यही है कि तीर्थकर अंतिम (चरम) भव में सर्वथा गृहस्थाश्रम का त्याग करे । संसार से महाभिनिष्क्रमण करके दीक्षा ले। साधु जीवन में प्रवेश करके अणगारी बने । उसी दिन उनको मनःपर्यव चौथा ज्ञान प्राप्त हो । फिर जो भी उपसर्ग आए उसे सहन करके कर्म खपाए । अनन्त में से किसी एक भी तीर्थंकर ने आनेवाले उपसर्गों का प्रतिकार नहीं किया। सहन करके कर्मों को खपाते हुए शुक्लध्यान में क्षपक श्रेणी प्रारम्भ करे और चारों घाती कर्म खपाए और वीतरागता केवलज्ञान-केवलदर्शन अनन्तवीर्य पाए । यही उनके लिए राजमार्ग है।
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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