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सकषायाऽकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥
१) सकषाय अर्थात् कषायभाव सहित जिन जिन कर्मों का बंध किया जाता है उसे साम्परायिक बंध का नाम दिया है। बात भी सही है। “सकषायत्वात् जीवो कर्मणः योग्यान् पुद्गलानादत्ते ।” तत्त्वार्थकार स्पष्ट लिखते हैं कि.. जब जब जीव राग- - द्वेषादि कषायों के आधीन होता है तब विशेष रूप से कार्मण वर्गणा के कर्मबंध योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है । यह कर्म परमाणुओं के ग्रहण की विधि या प्रक्रिया को आश्रव की प्रक्रिया कहते हैं । प्रथम आश्रव अर्थात् कर्माणुओं का आगमन होता है । फिर बन्ध अर्थात् आत्मप्रदेशों के साथ कर्माणुओं का एकरसीभाव होता है । कषाय आश्रव में
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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