________________
अब १२ वे गुणस्थान पर कषाय सर्वथा चले जाने के कारण... अब मनादि योग बिना कषाय की बिना राग- -द्वेष क्रोधादि की प्रवृत्ति करेंगे। यद्यपि मनादि की भी तथा प्रकार की प्रवृत्ति से कर्माणुओं का आश्रव - आगमन होता है। फिर बंध भी होता है । उसे ऐर्यापथिक आश्रव बंध कहते हैं । तत्त्वार्थ भाष्यकार कहते हैं कि
ईरणमिर्या - गतिरागमानुसारिणी । पन्थामार्गः प्रवेशो यस्य कर्मणस्तदीर्यापनं, एवंविधगतिः उपादानं कर्मकषायस्य (गतिरत्रोपलक्षणमात्रं ), योगमात्रप्रत्ययत्वात् गच्छतस्तिष्ठतो वा त्रिसमयस्थितिको भवत्यकषायस्य बन्धः ।
ईर्यापथ शब्द की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि ... 'ईर् गौ' धातु से ईरण - गति करने अर्थ में है उससे ईर्ष्या शब्द बना । पन्थ शब्द मार्ग अर्थ में है । यह सामान्य शब्दार्थ है। मार्ग में गमनागमन की क्रिया करनी आदि । परन्तु विशेष गूढार्थ है कर्म के मार्ग में प्रवेश होना । इस प्रकार की गति कर्मों का उपार्जन की सूचक है । गति शब्द तो यहाँ उपलक्षण मात्र है। मन-वचन-काया के योग मात्र की प्रवृत्ति है । जाते-आते जो गमनागमन की प्रवृत्ति करनी पडती है वह कायिक है तथा मन की भी `गमनागमन की प्रवृत्ति चलती है। मन भी आता है जाता है। तथा वचन भी ।
जैसा कि चित्रों में बताया है— चित्र नं. १ में एक बच्चा घर की दिवाल पर कीचड की या मिट्टि की बॉल बनाकर फेंकता है। वह दिवाल पर लगकर गिर जाता है, या दिवाल पर चिपका हुआ ही रहता है। आप देखेंगे कि गिर जाने के पश्चात् भी दिवाल पर उस ढेले का दाग बरोबर रहता है । ठीक इसी तरह आत्मा पर कषाय भाव की राग-द्वेष जन्य प्रवृत्ति के कारण जो आश्रव होता है उससे कर्म का बंध हो जाता है, वे कर्म आत्मा पर चिपक जाते हैं। मिट्टी के ढेले में नमी थी, अतः दिवाल पर चिपक गया। दाग रह गया। ऐसा कर्म का बंध साम्परायिक बंध कहलाता है ।
I
दूसरे चित्र में वही मिट्टी या कीचड का ढेला धूप में पूरा सूख जाने के पश्चात् या कोई भी बॉल घर की दिवाल पर फेंकी जाय तो वह तुरंत दिवाल पर स्पर्श करके गिर जाएगी । वहाँ रुकेगी नहीं और उसका दाग भी नहीं रहेगा। इस तरह का आत्मा के साथ कर्म का जो बंध होता है उसे ऐर्यापथिक बंध कहते हैं। यह योगज बंध कहलाता है। परन्तु साम्परायिक बंध कषायज बंध कहलाता है ।
बंधस्थिति - साम्परायिक बंध जो कषाय जनित बंध है उसमें राग-द्वेष - क्रोधादि का रस रहता है । अतः रस बंध होने के कारण उनकी बंध स्थिति का काल भी काफी
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
१३११