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जन्म ही धारण न करे तो फिर गोत्र का सवाल ही कहाँ उठता है । इस तरह नाम-गोत्र भी नए बंध के चक्र में से सर्वथा निकल जाते हैं तो फिर बचा कौन? सिर्फ १ वेदनीय कर्म । वेदनीय कर्म में २ भेद हैं- १) शाता वेदनीय और २) अशाता वेदनीय। बस, इन २ प्रकृतियों में से किसी का भी परिवर्तन से बंध होता रहेगा। या तो शाता वेदनीय का बंध हो, या फिर अशाता वेदनीय का बंध हो । किसी एक का होगा।
शाता वेदनीय कर्म सुख-शाता प्रदान करनेवाला है । और अशाता वेदनीय कर्म शारीरिक वेदना-दुःख देनेवाला कर्म है । अतः इनमें से बंध होगा। और इनका बंध १२ वे,तथा १३ वे गुणस्थानवाले दोनों को समान रूप से पडेगा । अर्थात् दोनों को एक वेदनीय कर्म का ही बंध होगा। ८ कर्मों में से मात्र एक कर्म का ही नया बंध होगा। तथा इस कर्म का बंध भी मात्र प्रदेश बंध ही होगा। अतः इस प्रदेश बंध में तो स्थिति कितनी रहेगी? यह कहते हैं
__ “पढमे समए बद्धपुट्ठा बितिए समए वेदिता ततिए समए निजिण्णा सेआले अकम्म वावि भवति" -(इति) पारमर्षवचनात् त्रिसमयावस्थान एव वेदितव्यः ।
. परम ऋषि महापुरुष लिखते हैं कि... प्रथम समय में बंध होता है । वह स्पृष्ट बद्ध जैसा रहता है । दूसरे समय में उसका वेदन (भोगना) हो जाता है । और तीसरे समय में निर्जरा भी कर लेते हैं । तथा शेष समय में अकर्मी कर्मरहित रहते हैं । केवली को कर्मों का उदय और वेदन
१३ वे गुणस्थान पर बिराजमान केवली के ८ में ४ घाती कर्मों का तो सर्वथा संपूर्ण क्षय पहले ही हो चुका है । अब ४ अघाती कर्मों का क्षय नहीं हुआ है । अतः इन ४ अघाती कर्मों का उदय है । अतः जहाँ तक जीवन है, शरीर है, जीना है, वहाँ तक अघाती कर्मों का . सब का उदय तो रहेगा ही। क्योंकि उनके आधार पर ही शरीर टिका हुआ है । अतः मृत्यु
की अन्तिम श्वास पर्यन्त इन चारों अघाती कर्मों के उदय की आवश्यकता रहती है । जब उदय रहता है तो वेदन भी होता ही है। इन चारों अघाती कर्मों का उदय भुगतना है। क्योंकि शरीर का उपयोग शरीर द्वारा क्रिया-प्रवृत्ति उनको भी करनी ही है । जो तीर्थंकर भगवान बने हैं उनको भी अपने उपार्जित इस श्रेष्ठ पुण्य प्रकृति का वेदन करना पडता है। अर्थात् भुगतनी पडती है।
विशेषात्तीर्थकृत्कर्म, येनास्त्यर्जितमूर्जितम्। तत्कर्मोदयतोऽत्रासौ स्याज्जिनेन्द्रो जगत्पतिः ।। ८५ ॥
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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