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वे गुणस्थान पर उनका.... काययोग की स्थिरता में ही ध्यान की श्रेष्ठता है । क्योंकि उनको मन को साधने का कोई सवाल ही नहीं रहता है इसलिए । मन तो उनका संपूर्ण रूप से स्थिर ही है। दूसरी तरफ वीतरागता और सर्वज्ञता भी चरम कक्षा की प्राप्त हो चुकी है। अतः अब मन को साधने का सवाल ही नहीं रहता है। इसलिए जब योगनिरोध की प्रक्रिया आती है तब काय योग को अचल करना...स्थिर करना ही ध्यान कहलाता है। यह बडी सूक्ष्म क्रिया है । अतः सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती (अनिवृत्ति) की कक्षा का तीसरे प्रकार का शुक्लध्यान कहलाता है। इसमें श्वास-उच्छ्वास की क्रिया मात्र अवशिष्ट रखकर शेष सर्व काय योग स्थिर कर देते हैं।
१३ वे गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली प्रभु अन्तिम अन्तर्मुहूर्त काल में योगनिरोध की प्रक्रिया करेंगे, तब शुक्ल ध्यान के तीसरे भेद का ध्यान करेंगे। तथा केवलज्ञान की प्राप्ति के पहले प्रथम दो भेदों का ध्यान रहता है । अतः जब १३ वे गुणस्थान पर देशोन पूर्वक्रोड वर्षों का इतना दीर्घ काल बिताते हैं तब क्या करते हैं? कौन सा ध्यान करते हैं ? या ध्यान करते हैं या नहीं? इसके उत्तर में पूर्वाचार्य महर्षी फरमाते हैं कि... नहीं, सतत केवलज्ञान-दर्शन में रहते हुए प्रभु ध्यानान्तरिका में रहते हैं। अन्य किसी ध्यान की आवश्यकता वहाँ नहीं रहती। योगनिरोध की क्रिया
बादरे काययोगेऽस्मिन्, स्थितिं कृत्वा स्वभावतः । सूक्ष्मीकरोति वाक्चित्तयोगयुग्मं स बादरम् ।। ९७ ।। त्यक्त्वा स्थूलं वपुर्योगं, सूक्ष्मवाक्चित्तयोः स्थितिम् । कृत्वा नयति सूक्ष्मत्वं, काययोगं तु बादरम् ।। ९८ ।। सुसूक्ष्मकाय योगेऽथ, स्थितिं कृत्वा पुनः क्षणम्।
निग्रहं कुरुते सद्यः, सूक्ष्मवाक्चित्तयोगयोः ।। ९९ ।। .. .ततः सूक्ष्मे वपुोंगे, स्थितिं कृत्वा क्षणं हि सः।
सूक्ष्मक्रियं निजात्मानं, चिन्द्रूपं विन्दति स्वयम् ॥ १०० ।। गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकार महर्षी ... विशेष वर्णन करते हुए लिखते हैं कि... १३ वे गुणस्थान पर सयोगी केवली सर्वज्ञ भगवान् सुदीर्घ लम्बे काल तक सयोगी अवस्था में रहकर ध्यानान्तरिका में काल यापन करते हुए अनन्त ज्ञान-दर्शन से समस्त लोकालोक को जानते-देखते हुए विचरते हैं । देशनादि द्वारा जगत् पर महान उपकार करते हैं । इस
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आध्यात्मिक विकास यात्रा