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काययोग की निवृत्ति संभव ही नहीं है । इस तरह आत्मज्ञान से केवलज्ञानी है । चारों घाती कर्मों का क्षय हो जाने के कारण प्रगट हुए चारों प्रकार के गुण केवलज्ञान, केवलदर्शन, वीतरागता तथा अनन्त वीर्यादि लब्धियाँ प्रगट होने के बावजूद भी चारों अघाती कर्म वहाँ मौजूद हैं । इसके कारण अघाती कर्म की प्रवृत्तियाँ भी १३ वे गुणस्थान पर रहती ही हैं। मन-वचन-काया के तीनों योगों की प्राप्ति भी ४ अघाती कर्मों के नामकर्म के कारण हई हैं। अतः इनकी भी सत्ता जबतक है तब तक प्रवृत्ति भी रहेगी ही। हाँ, यह बात सही है कि कहाँ तक... किस गुणस्थान तक कैसी प्रवृत्ति और किस गुणस्थान से कैसे योगों की प्रवृत्ति रहेगी? या चलेगी? इसका ख्याल गुणस्थान के आधार पर आएगा।
१ ले गुणस्थान पर तीनों योगों की प्रवृत्तियों में अशुभ लेश्या आदि कषाय तथा आर्त-रौद्र ध्यान की प्रधानता थी अतः प्रवृत्ति भी उसके आधार पर हिंसादि कषायादि की ज्यादा रही । अतः परिणाम स्वरूप तीनों योग उसी में ज्यादा बंधे हुए रहे। - ४ थे गुणस्थान पर भी जीव अविरति में ही था । फिर भी सम्यग् दर्शन की प्राप्ति से मन की मानसिक मान्यता में थोडी सुधारणा जरूर हो जाती है । लेकिन फिर भी योगों की हिंसादि-कषायादि की प्रवृत्ति रहती हैं। ___५ वे गुणस्थान पर कुछ देर विरति आती है और कुछ देर विरति नहीं आती है। जब विरति आती है तब मन-वचन-काया के योग संवरवाले बन जाते हैं। तीनों योगों की प्रवृत्ति सीमित-गुप्तिवाली संवर प्रधान बनती है। विरति में “दुविहं तिविहेणं-मणेणं-वायाए-काएणं न करेमि–न कारवेमि" के पच्चक्खाण "करेमि भंते" के सूत्र से लिये जाते हैं। आखिर ५ वे गुणस्थान पर गृहस्थी है। इसलिए विरति अविरतिवाला मिश्र भाववाला है। तीनों योगों को सम्यग् बनाने के लिए समिति तथा गुप्त रखने के लिए गुप्ति धर्म बताया है।
अब छटे गुणस्थान पर आकर जो संसार का सर्वथा त्यागी विरक्त हो जाने के कारण जब घर बार संसार सब छोड ही दिया है तो फिर तीनों योगों के कारण हिंसादि की क्रिया-प्रवृत्ती क्यों रखनी? अब साधु बनने के कारण लेश्याएँ भी सुधर जाती हैं । शुभ लेश्याएँ आती हैं । कषायों के विषय में १६ में से १२ कषाय तो सर्वथा निकल चुके हैं। अब मात्र ४ ही शेष बचे हैं । वे भी संज्वलन की अल्पकालीन स्थितिवाले हैं। तथा धर्मध्यान आदि ध्यान की प्रवृत्ति बढती ही जाती है। इस तरह लेश्या, कषाय और ध्यान की विशुद्धि हो जाने से अब मन-वचन-काया के तीनों योग काफी हद तक शुद्ध हो जाते हैं । अतः इन तीनों योगों की प्रवृत्ति सुधर जाती है।
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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