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“एह ठकुराइ तुझ के बीजे नवि घटे रे लोल।" हे प्रभु ! यह तो आपकी विशेषता है । यह आपका ही वैभव है, अन्यत्र सर्वत्र कहीं देखने भी नहीं मिलता है। कहीं घटता भी नहीं है। एक मात्र तीर्थंकर में ही घटते हैं। तीर्थंकर नामकर्म की पुण्य प्रकृति से ही होते हैं। ३४ अतिशय१) ४ अतिशय जन्म से, २) ११ अतिशय कर्मक्षय से, ३) १९ अतिशय देवकृत =३४
चार अतिशय मूलथी ओगणीश देवना कीध ।
कर्म खप्याथी अगीयार, चोत्रीश एम अतिशय समवायांगे प्रसिद्ध ।। पू. श्री पद्मविजयजी म. ने भगवान आदिनाथ के स्तवन में इस तरह लिखा है- ४ अतिशय जन्म से + ११ अतिशय कर्मक्षय जन्य तथा १९ अतिशय देवकृत होते हैं । ये कुल मिलाकर ३४ अतिशय कहलाते हैं । अति + शय = अतिशय शब्द अति-विशिष्ट अर्थ में है । जो सामान्य रूप में भी किसी में देखने को नहीं मिलते हैं । वे तीर्थंकर भगवान में अतिशय विशिष्ट कक्षा के होते हैं । अतः उन्हें अतिशय कहते हैं। ऐसे कुल ३४ प्रकार के अतिशय होते हैं। जो तीर्थंकर भगवान में होते हैं।
इन अतिशयों के ३ वर्गीकरण किये गए हैं। जन्मजात जो होते हैं। उन्हें मूल अतिशय, या सहजातिशय कहते हैं । सहज स्वाभाविक रूप से होते ही हैं ।
तेषां च देहोऽद्भूतरूपगन्धो, निरामय स्वेऽमलोज्झितश्च । श्वासोऽजगन्धे रुधिरामिषं तु, गोक्षीरधाराधवलं ह्यविस्नम्।
आहारनीहारविधिस्त्ववदृश्यश्चत्वार एतेऽतिशया सहोत्थाः ।। पूज्यश्री हेमचन्द्राचार्य जैसे कलिकालसर्वज्ञ महापुरुष ने अभिधान चिन्तामणी कोष ग्रन्थ में उपरोक्त श्लोकों में निर्देश किया है
१) परमात्मा का देह जन्म से ही अद्भुत रूप-सौंदर्य युक्त होता है । सर्वथा रोग-रहित निरोगी काया, प्रस्वेद अर्थात् पसीने से रहित शरीर, किसी प्रकार का मैल भी नहीं होता है। इस तरह दोषरहित शरीर तीर्थंकर महाराजा का जन्म से ही होता है । ____२) जन्मतः प्रभु के श्वासोच्छ्वास भी कमल पुष्प की सुगंध जैसे सुवासित होते हैं। दुर्गंध का नामोनिशान मात्र भी नहीं होता है ।
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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