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से दबे हुए होने के बावजूद भी अनन्त काल तक इनका अस्तित्व रहा । अतः जिस आत्मा ने भी क्षपक श्रेणी प्रारंभ की, अनन्तगुनी शक्ती प्रगट करके अनन्तगुने इन कर्मों का जडमूल से सर्वथा क्षय किया और परिणाम स्वरूप ये ही ज्ञानादि गुण पूर्ण रूप से प्रगट हो जाते हैं । आज प्रगट हो जाने के बाद वापिस कभी भी कर्म से नहीं लिपटेंगे। नहीं दबेंगे।
आत्मा गुणस्थानों की इस श्रेणी को पार करके मोक्ष में भी चली जाय तो भी ये गुण यहाँ और वहाँ समान रूप में रहेंगे। पूर्ण रूप में रहेंगे। १) अनन्तगुने ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय से अनन्तगुना ज्ञान प्रगट हुआ है। २) अनंतगुने दर्शनावरणीय कर्म केसर्वथा संपूर्ण क्षयसेअनन्तगुना दर्शन प्रगट हुआ है। ३) अनन्त गुने मोहनीय कर्म के संपूर्ण सर्वथा क्षय से अनन्त गुनी वीतरागता प्रगट हुई। ४) अनन्तगुने अन्तराय कर्म के संपूर्ण क्षय से अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यादि शक्तियाँ-लब्धियाँ प्रगट होती हैं। __ इस तरह ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये ४ गुण या ज्ञान, दर्शन, वीतरागता और वीर्यादि ये चारों अनन्त स्वरूप में प्रगट होते हैं । इसलिए इन्हें समूहात्मक एक नाम अनन्त चतुष्टयी का दिया है । चतुष्टय शब्द ४ का वाचक है । और अनन्तशब्द गुणों की अनन्तता का सूचक है । अनन्त शब्द काल से अन्त न होनेवाले काल-अनन्त का सूचक है । क्षेत्र से असीम-अमाप-अपरिमित क्षेत्र का सूचक है। द्रव्य से अनन्त का अर्थ अनन्त द्रव्य, गुण तथा पर्यायों का सूचक है। समस्त ब्रह्माण्ड के अनन्त पदार्थों का विचार इस अनन्त शब्द से किया है । भाव से अनन्तता समस्त संसार के सूक्ष्म से स्थूल अनन्त जीवों के भावों परिणामों अध्यवसायों का सूचक है। इस तरह अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ सर्वदशी परमात्मा-अनन्त जीवों के आत्मागत-मनोगत भावों को एक साथ जानते हैं। इस तरह द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से तथा भाव से अनन्तता एक साथ प्रगट रहती है । ज्ञानादि गुण सभी अनन्त स्वरूप में प्रगट होते हैं, रहते हैं। यह १३ वे सयोगी केवली गुणस्थान का स्वरूप है । गुण वैभव है । इनमें से एक-एक का स्वतंत्र रूप से स्वरूप समझने पर और विशद गरिमा का ख्याल आएगा। अनन्त ज्ञान-केवलज्ञान
केवल + ज्ञान = केवलज्ञान । केवल = सिर्फ - अकेला ज्ञान ही ज्ञान है । तद् विरोधि अज्ञान का तो अंशमात्र भी नहीं है । नाम मात्र भी ज्ञान नहीं है। सिर्फ ज्ञान ही ज्ञान
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आध्यात्मिक विकास यात्रा