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८) अतिवृष्टि नहीं होती है-वृष्टि अर्थात् वर्षा । सतत निरंतर बरसती हुई बारीश में विपुल मात्रा में सीमा से ज्यादा अति होना यह अतिवृष्टि प्रभु के विचरण क्षेत्र में नहीं होती है।
९) अनावृष्टि न होना- अति वृष्टि से ठीक विपरीत वृष्टि होती ही नहीं इसे अनावृष्टि कहते हैं। यह भी तीर्थंकर के विचरण क्षेत्र में सर्वथा नहीं होती। बारिश का अभाव कभी नहीं होता।
१०) दुर्भिक्ष का अभाव- तीर्थंकर भगवन्तों के पुण्य प्रभाव से उनके विचरंण क्षेत्र में दुष्काल-अकालरूप दुर्भिक्ष कभी भी नहीं होता है । सदा ही सुकाल रहता है। सर्वत्र विपुल मात्रा में धन-धान्य की वृद्धि होती रहती है।
११) स्व-पर चक्र का भयनाश- भगवान जहाँ विचरण करते हैं उस परिसर-क्षेत्र में स्व या पर राष्ट्रों-देशों के युद्धों का भय बिल्कुल नहीं रहता है । युद्ध की कोई संभावना ही नहीं रहती है। परचक्र अर्थात् शत्रु सेना अचानक कभी धावा नहीं बोलती । कभी विद्रोह नहीं होता है । आंतर विग्रहादि भी नहीं होते हैं।
ये उपरोक्त ११ प्रकार के अतिशय तीर्थंकर परमात्मा के घाती कर्मों के क्षय के प्रभाव से होते हैं। इनके महान पुण्य प्रभाव से चारों तरफ के क्षेत्र में इतने अतिशय होते हैं। पुण्य-प्रभाव साम्राज्य से सभी लाभान्वित होते हैं। देवकृत १९ अतिशय
अभिधान चिन्तामणी में हेमचन्द्राचार्यजी म. ने देवकृत अतिशयों का वर्णन करते हुए निम्न प्रकार से बताया हैं
१) धर्मचक्र- अरिहंत परमात्मा जब विहार करते हुए चलते हैं, तब देवता आकाश में सूर्यमण्डल सदृश तेजस्वी धर्मचक्र आगे चलाते हैं। ____२) चामर-समवसरण में बिराजमान प्रभु के दोनों तरफ देवता खडे रहकर चामर से वीझन करते रहते हैं । चौमुखजी भगवान के दोनों तरफ ऐसे चारों दिशा में चार जोडी अर्थात् ८ देवता चामर वींझते हैं।
३) मृगेन्द्रासन- मृगेन्द्र अर्थात् सिंह । सिंह की मुखाकृति जिसमें दिखाई देती हो ऐसे सिंहासन पर प्रभु बिराजमान होते हैं । यह स्फटिकमय होता है । याद रखिए,
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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