________________
११) वृक्षों का नमन-प्रभु विचरते हुए मार्ग में चलते हैं, उस समय वृक्ष की शाखाएँ भी झुकती हैं मानों नमस्कार करती हो, ऐसा एहसास कराती है । तथा पुष्पों को बरसाते हुए मानों पुष्पवृष्टि करके बधाई करते हैं, ऐसा सुहावना दृश्य लगता है। __१२) देवदुंदुभि का नाद-प्रभु की देशना श्रवणार्थ मानों सब को आमंत्रण देते हो इस तरह देवता दुंदुभि बजाकर आकाश में ऊँचा नाद करते हैं । ध्वनि करते हैं ।
१३) सुखकारी वायु-प्रभु के प्रभाव को फैलाते हुए देवता प्रभु के विचरण क्षेत्र में-चारों तरफ सुगन्धित-सुखकारी वायु प्रसारित करते हैं । जो आह्लादकारी-मनोहर लगता है । मन्द-मन्द शीतल पवन सुखकर लगता है।
१४) शकुन- चारों तरफ पक्षीगण भी मधुर ध्वनि से ताल-लयबद्ध गाते हों, प्रदक्षिणा देते हुए उडते हों, ऐसा सुंदर दृश्य देवता खडा करते हैं। - १५) सुगंधी वृष्टि-देवता गण चारों तरफ सुगंधित जल का छंटकाव करते हैं। सारा वातावरण सुगंध महक से आह्लादकारी बनता है। . १६) पुष्पवृष्टि- व्यंतर जाति के देवता चारों तरफ पचरंगी विविधवर्णी पुष्पों की जानु प्रमाण वृष्टि करते हैं।
१७) बालादि की वृद्धि न होना- संसार छोडकर दीक्षा लेते समय जो पंचमुष्टि लोच करके केश का विसर्जन कर देते हैं उसके पश्चात् पुनः दाढी मूछ के बालों की वृद्धि कभी नहीं होती है। इसी तरह नाखुन भी कभी भी नहीं बढते । केश-रोम-नख-श्मश्रु कभी भी नहीं बढ़ते हैं।
१८) क्रोडों देवताओं का आगमन- “जघन्यतः कोटि संख्यास्त्वां सेवन्ते सुराऽसुरा।" केवलज्ञान के बाद विचरते हुए परमात्मा की सेवा में कम से कम करोडों देवता उपस्थित रहते हैं। चारों निकाय के देवताओं की उसमें गणना होती है।
१९) सर्वऋतुओं का अनुकूल होना-प्रभुजी के विचरण काल के समय सभी अर्थात् छ ऋतुएँ एकसाथ समान रूप से फलित होती हैं । अनुकूल रूप से फलित होती हैं। सभी ऋतुओं के फल-फूल एक साथ फलते हैं।
उपरोक्त १८ अतिशय देवकृत अतिशय हैं। तीर्थंकर नामकर्म की सर्वोत्कृष्ट कक्षा की पुण्य प्रकृति के उदय के कारण देवता स्वयं आकृष्ट होते हैं । आते हैं और बिना कहे स्वयं उद्यत होते हैं और ऐसे अतिशयों का आयोजन करते हैं। भक्तिभाववश करते हैं। और करके स्वयं कृतकृत्य हुए ऐसा भाव रखते हैं।
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
१२५९