________________
३) स्थाम- जीवप्रदेशेभ्यः क्षपणार्थ कर्मप्रदेशानामाकर्षणं दन्तालिकयैव कचवरस्य । जिस तरह दन्ताली - झाडु से विशेष तरह से जमीन पर के कचरे को खींच लिया जाता है ठीक उसी तरह आत्मप्रदेशों पर से कर्मदलिकों को क्षय-नष्ट करने के लिए ध्यान से खींच लाए उसे स्थाम कहते हैं ।
४) उत्साह- जीवप्रदेशेभ्यः कर्मणामूर्ध्वं नयनं नलिकयैव जलस्य। जैसे पाइप-नली के द्वारा पानी को ऊपर चढाया जाता है वैसे ही जिस ध्यान विशेष के द्वारा आत्मप्रदेशों पर से कर्मों को ऊपर ले जाना-अर्थात् ऊध्वीकरण करने की प्रक्रिया को उत्साह कहते हैं।
५) पराक्रम- अधोनयनं कर्मण: सच्छिद्रकुतुपात् तैलस्यैव घण्टिकायां वाऽमृतकलाया: । जैसे सछिद्र कोठी (पीप) में से तेल को नीचे गिराया जाय अथवा अमृतकला में से जैसे अमृत घटिका में गिरे वैसे ही ऊपर गए हुए कर्मों को नीचे पटकना-अधोनयन की प्रक्रिया को पराक्रम कहते हैं।
६) चेष्टा- स्वस्थानस्य कर्मणः शोषणं सप्ताय सभाजनस्य जलस्यैव । जैसे गरम तपे हुए बर्तन में थोडा सा पानी जल्दी बाष्पीभवन हो जाता है, वैसे ही स्वस्थान आत्मप्रदेशों में रहे हुए कर्मों को सुखा देना उसे चेष्टा कहते हैं । इसमें शोषण क्रिया होती
७) शक्ति-जीवकर्मणोवियोगं प्रत्याभिमुख्यजननं, तिलानामिव तैलवियोजनं यथा घाणकेन निपीडनम्। जैसे तिल में तैल अलग करने के लिए उसे तैली घाणी में पीलन करके निकालता है ठीक उसी तरह जीव-कर्म का वियोग करने के लिए अभिमुख होने को 'शक्ति' कहते हैं।
८) सामर्थ्य- साक्षाज्जीव-कर्मणोवियोगकरणं खलतैलयोरिव। जैसे खल और तेल अलग किये जाते हैं वैसे ही कर्म और जीव का सर्वथा वियोग करने को सामर्थ्य कहते हैं । अथवा आत्मप्रदेशों से कर्मों को सर्वथा दूर-अलग ही कर देना सामर्थ्य है ।
___ इस तरह उपरोक्त इन आठों प्रकार की प्रक्रिया में समानार्थकता है। अतः योग-वीर्यादि पर्यायवाची शब्द है । सब का काम है ध्यान विशेष से निर्जरा = कर्मक्षय करना । लेकिन कर्मक्षय की इस प्रक्रिया में अन्दर गहराई में कितना थोडा सा अन्तर है वह व्याख्याकार ने दर्शाया है । इन आठों में आप देख सकते हैं कि क्रमशः एक से दूसरा प्रकार ज्यादा ऊँची कक्षा का है । एक से दूसरे में ध्यान की धारा तीव्र-तीव्रतर-तीवतम
११०६
आध्यात्मिक विकास यात्रा