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कर्म उस नाम से उस रूप में पहचाना जाता है। वीतरागता नामक आत्मा के मूल गुण को ढकनेवाला मोहनीय कर्म है। कर्म के आवरण के कारण गुण ढका रहता है । वह गुण उस कर्मावरण के दूर हटने से पुनः प्रगट होता है। जैसे मुलभूत सफेद कपड़ों पर यदि हल्दी या किसी का कच्चा रंग लग जाय तो उसे धोने से रंग के निकल जाने पर कपडे की सफेदी पुनः वैसी ही चमक उठती है। सफेदी कहीं बाहर से आई नहीं है अपितु मूलभूत अन्दर पहले से थी और वह जिस कर्मावरण से आच्छादित हो चुकी थी वही उस कर्मावरण के हट जाने पर पुनः प्रकट हुई है । ठीक इसी तरह आत्मा के गुण कर्मावरण के अपगम अर्थात् नाश, क्षय के कारण प्रगट हुए हैं । यहाँ मोहनीय कर्म के संपूर्ण उपशान्त हो जाने से ११ वे गुणस्थान पर वीतरागता प्रगट हुई है। लेकिन यह चिरस्थायी, सदाकालीन नहीं है, क्योंकि मोहनीय कर्म की कषायादि की प्रकृतियाँ सत्ता में पडी हैं। मात्र दबी हुई, शान्त पडी हुई हैं, जैसे जलते अंगारे राख से दबे हो उनका विश्वास नहीं किया जा सकता वैसे ही दबे हुए, शांत पडे हुए मोहनीय कर्म का कोई विश्वास नहीं किया जा सकता। जैसे ही उसका पुनः उदय हुआ नहीं कि वीतरागता गायब । और पतन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है ।
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ऐसी वीतराग अवस्था में मोहनीय का उदय नहीं होने से यथाख्यात चारित्र होता है । भव (आयु) क्षय से जब ११ वे गुणस्थान से उपशम श्रेणीवाला गिरता है । आयुष्य समाप्त होते ही वह शमक महात्मा मृत्यु के पश्चात् सीधे अनुत्तर विमान नामक सर्वोच्च कक्षा के देवलोक में उत्पन्न होते हैं । जहाँ एकावतारी ही होता है । अर्थात् एक ही भव मनुष्य का महाविदेह क्षेत्र में करके ... निश्चित ही मोक्ष में जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं
है।
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११ वे गुणस्थान पर २५ में से सिर्फ १ ऐर्यापथिकी क्रिया ही होती है । आठों कर्म यहाँ सत्ता में पडे हुए होते हैं । ८ में से १ कर्म का बंध होता है । सिर्फ शाता वेदनीय का । और इसी जन्म में भोगी जाती है । ८ में से ७ कर्मों का वेदन उदय होता है । क्योंकि मोहनीय कर्म की सभी प्रकृतियाँ दबी हुई शान्त रहती है । ८ में से ५ कर्मों की उदीरणा होती है । १) आयु० २) वेदनीय तथा मोहनीय की नहीं होती । मोहनीय कर्म को तो दबाकर रखा है अतः अन्य ७ कर्मों की निर्जरा हो सकती है। क्षायिक भाव न होने के कारण शेष ४ भाव होते हैं । बंधहेतुओं में से तो यहाँ सिर्फ १ ही बंध हेतु 'योग' का होता है । कषायादि भाव तो होते ही नहीं हैं । लेश्या सिर्फ शुक्ल ही होती है । इस तरह ११ वे गुणस्थान का स्वरूप शास्त्रों में वर्णित किया गया है।
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क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
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