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जरूर है । अतः स्वस्वरूपजन्य-समानता है। जबकि कर्मरूपजन्य विषमता-भेदयुक्त है । भेद-भिन्नता है । अतः द्रव्यगत, गुणगत समानता की दृष्टि से आत्मा एक जैसी कही जा सकती है परन्तु एक ही है यह कहकर संख्या का भेद मिटाना यह मिथ्यात्व है । ऐसे नहीं होता और संसार में एक ही आत्मा होती हो एक के मुक्त होने से सभी मुक्त हो जाते। फिर संसार का अस्तित्व ही नहीं रहता । लेकिन अनन्त आत्माओं के मुक्त होने के बावजूद भी अनन्तानन्त आत्माएँ आज भी संसार में मौजूद हैं । तथा अनन्त काल के बाद भी अनन्त आत्माएँ संसार में रहेगी। इस तरह अनन्त काल के पश्चात् भी अनन्त आत्माओं के मोक्ष में जाने के पश्चात् भी अनन्तानन्त आत्माओं का अस्तित्व संसार में रहेगा ही। इस तरह संसार का अस्तित्व भी अनन्तकालीन है । भूतकाल में भी इस संसार को अनन्त काल बीत चके हैं और भविष्य में भी अनन्त काल बीतनेवाला ही है। ऐसे संसार का मुख्य द्रव्य ही चेतन जीवात्मा है । दूसरा घटक द्रव्य-जड अजीव पदार्थ है । कर्माधीन बनकर यह आत्मा जड-अजीव द्रव्य के साथ, मिलजुलकर या घुल-मिलकर जीती है। काल यापन करती है।
यदि एक ही आत्मा होती और वह भी मुक्त बनकर परमात्मा बन जाती तो फिर इस संसार को विकास का मार्ग बताने का उपदेश क्यों देते? संसार में जब कोई आत्मा ही नहीं रहती तो फिर उपदेश का यह मार्ग क्यों बताते? फिर किसके लिए बताते? अतः यह निश्चित ही है कि संसार अनन्त जीवों का भरा हुआ है। कोई-कोई आत्माएँ अपना विकास साधकर संसार की सर्वोपरि कक्षा को प्राप्त कर लेती है तब अपने पीछे के अनन्त
जीवों के कल्याणार्थ वह विकास का कल्याणकारी मार्ग जगत् को दिखाती है। "महाजनो येन गतः स पन्थाः” हमारे पूर्वजो महात्मा जिस तरह-जिस मार्ग से अपना विकास साधते हुए पामर में से परम बने हैं उनका ही मार्ग हमें भी लेना चाहिए। उसी मार्ग का अनुसरण करना यही हमारा धर्म है। उन बने हुए परमात्मा की ही शरण स्वीकारना और उन्हीं के दिखाए हुए मार्ग पर चलना यही
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आध्यात्मिक विकास यात्रा