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१ मोहनीय को क्षय करने में १२ वे गुणस्थान तक का काफी लम्बा समय बिता दिया। और १२ वे गुणस्थान के भी असंख्य समयों में से १ कम असंख्यात समय शुक्लध्यान के दूसरे प्रकार का ध्यान करने में बिताये हैं। अब शेष सिर्फ २ समय बचे हैं और कर्म ३ है । तथा इन ३ कर्मों की अवान्तर प्रक्रिया कितनी है ? सिर्फ २ समय में प्रकृतियों का क्षय
१) ज्ञानावरणीय की ५ प्रकृतियाँ, .२) दर्शनावरणीय कर्म की ९ प्रकृतियाँ, ३) अंतराय कर्म की ५ प्रकृतियाँ
इन ३ घाती कर्मों की कुल १९ प्रकृतियाँ १२ वे गुणस्थान क्षीण मोह तक मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ बंध–उदय-उदीरणा एवं सत्ता सब में से जडमूल से चली गई है।
__ ज्ञानावरणीय कर्म की-५ पाँचों अवान्तर प्रकृतियों का बंध १० वे गुणस्थान तक और उदय-उदीरणा तथा सत्ता १२ वे गुणस्थान तक बरोबर सत्ता में पडी है । यद्यपि क्षपक श्रेणीवाला साधक है फिर भी १२ वे गुणस्थान तक तो एक मात्र कर्मों के राजा मोहनीय कर्म का ही जडमूल से क्षय किया है । इसी काम में मशगुल-लीन-व्यस्त था। इसलिए ज्ञानावरणीय कर्म को तो बिल्कुल हाथ भी नहीं लगाया। ___इसी तरह अन्तराय कर्म की भी ५ प्रकृतियाँ हैं इसकी भी स्थिति ज्ञानावरणीय के जैसी ही है । अर्थात् १० वे गुणस्थान तक बरोबर बंध भी होता रहा तथा उदय-उदीरणा
और सत्ता बरोबर १२ वे गुणस्थान तक रहती है । मोहनीय कर्म को ही खपाने के पीछे पडा हुआ था इसलिए अंतराय कर्म को भी हाथ नहीं लगाया। ____ अब रही बात दर्शनावरणीय कर्म की। ४ घाती कर्मों में यह भी दूसरा घाती कर्म है । इसकी अवान्तर ९ नौं प्रकृतियाँ है । इसके चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल ये ४ दर्शन तथा पाँचवी निद्रा की। इन ५ प्रकृतियों का बंध १० वे गुणस्थान तक रहा। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और थीणद्धि इन तीनों का बंध मात्र दूसरे गुणस्थान तक ही रहा। और प्रचला का बंध ८ वे गुणस्थान तक रहा । दर्शनावरणीय कर्म के ४ दर्शन + १ निद्रा और प्रचला इन ६ प्रकृतियों का उदय, उदीरणा. तथा सत्ता बरोबर १२ वे क्षीण मोहनीय गुणस्थान के अन्तर्मुहूर्त के अन्त से द्विचरिम समय पहले तक रहता है । लेकिन थीणद्धित्रिक
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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