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भाव
परिणामिक
अनादि अनन्त कालीन नित्यत्व अस्तित्व,भव्यत्व, अभव्यत्व, , जीवत्व
निरावरण
पूर्ण
प्रकाशमान
चित्र परिचय
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१) पहले के चित्र में - पानी में कचरा जैसे नीचे जम गया है, लेकिन अभी भी पानी से अलग नहीं हुआ है उसी में है, सिर्फ नीचे जम गया है। और ऊपर ऊपर का पानी स्थिर होने से शान्त होने से थोडी देर के लिए निर्मल पवित्र हो गया है । ठीक उसी तरह आत्मा के कर्म अस्तित्व में (सत्ता में) होने पर भी... उदय में न आने पर कुछ देर उपशमन हो जाता है । उस कर्म के उपशमन काल में आत्मा के जो विशुद्ध भाव आदि प्रगट होते हैं वे औपशमिक भाव हैं ।
क्षायिक भाव
निर्जरित
कर्मा
२) दूसरे चित्र में - आत्मा रूपी सूर्य कर्म रूपी राहु से ग्रसित अवस्था में है । जितना अंश कर्म ने आवृत्त किया है, उतने आत्मा के दबे हुए गुण प्रगट नहीं हुए, साधक उनका उपशमन करता है तथा शेष भाग के कुछ कर्मों का सर्वथा क्षय किया है ऐसा साधक क्षयोपशमभाव (मिश्रित भाव ) है ।
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३) तीसरे चित्र में - आत्मा पर लगे हुए कर्मों का स्तर बना हुआ है । उसमें से जितने अंशों में से आत्मगुणों का ज्ञानादि का प्रकाश बाहर आता है यह औदयिक भाव है । आत्मा के उतने ज्ञानादि उदय में आते हैं।
४) चौथे चित्र में - आत्मप्रदेशों पर से चारों घाती कर्मों के आवरण का स्तर सर्वथा क्षयं होकर निकल गया है । नष्ट हो चुका है। अतः वे कर्माणु आत्मप्रदेशों से निर्जरित होकर बाहर निकल कर बिखर चुके हैं। जबकि अघाती के चारों कर्म अभी भी आत्मा पर चिपके हुए - लगे हुए हैं। जिन घाती कर्मों के क्षय हो जाने से आत्मा के जो ज्ञानदर्शनादि गुण प्रगट हो चुके हैं वे क्षायिकभाव के पूर्ण - संपूर्ण स्वरूप में प्रगट हुए हैं ऐसे वे नौं गुण
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५) पाँचवे चित्र में — आत्मा एक अखण्ड - असंख्य - प्रदेशी स्वतंत्र द्रव्य है । उसके प्रदेशों को दर्शाता हुआ चित्र है । भव्यत्वादि के तीनों पारिणामिक भाव अपने स्वरूप में है ।
आध्यात्मिक विकास यात्रा