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पर मोहनीय की कर्मप्रकृतियों का क्षय करता हुआ क्रमशः आगे बढ़ता है और १२ वे गुणस्थान पर आता है। क्या करता हुआ? करते करते उसने क्या किया? किस कार्य की उपलब्धि हुई? उसका सूचक शब्द है क्षीण मोह । क्षीण हो चुका है मोहनीय कर्म जिसका ऐसा क्षीण मोह । ११ वे और १२ वे में करने के सूचक ये शब्द नहीं है लेकिन जो कर चुके हैं तथा परिणाम स्वरूप जिस स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं उसके सूचक नाम
१ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर न तो मिथ्यात्व को प्राप्त करता है और न ही कुछ नयी उपलब्धि होती है। मिथ्यात्व यहाँ नया नहीं पाया है लेकिन जो अनादिकालीन है, वही है । उसी स्थिति का सूचक है । मिथ्यात्व होने के बाद भी जिसका कभी ख्याल तक नहीं था । उस मिथ्यात्व का उसे ख्याल आता है । अब मिथ्यात्व को मन्द करने का तथा मिथ्यात्व में रहकर भी यथाप्रवृत्तिकरण आदि जो कुछ करता है तथा अन्त में जाकर मिथ्यात्व को छोडकर सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उस प्रक्रिया का सूचक नाम है।
इसी तरह १३ वे, १४ वे गुणस्थान में किसकी प्राधान्यता है ? १३ वे पर योग की प्राधान्यता है । इसलिए सयोगी शब्द सूचक नाम रखा है। योग सहित को सयोग, और ऐसा जो है वह सयोगी कहलाता है । साथ में केवली शब्द जोडकर १३ वे गुणस्थान की उपलब्धि का भी दर्शन करा दिया है। जिसको केवलज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है जिसके कारण जो केवली-सर्वज्ञ बन चुका है वह सयोगी केवली कहलाता है । इसलिए नामकरण उभयता का सूचक शब्द बनाया है । १४ वे गुणस्थान का नाम अयोगी केवली है । योगों का सर्वथा अभाव होना । मन-वचन-काया के योगों की समाप्ति होने से साधक अयोगी बन जाता है, अयोगी होते हुए भी केवली-सर्वज्ञ तो है ही । इसलिए अयोगी केवली नाम बिल्कुल सही सूचक नाम है। इस तरह सभी गुणस्थानों के नामकरण की व्यवस्था उपलब्धि-प्रवृत्ति-स्थिति के आधार पर सुन्दर तरीके से ज्ञानी भगवंतों ने की है। क्षीण मोहनीय १२ वे गुणस्थान का कार्य
यह क्षपक श्रेणी का गुणस्थान है । उपशम श्रेणीवाला तो ११ वे गुणस्थान पर आकर रुक जाता है। बस, यहीं उसका अन्त आ जाता है । इसीलिए ११ वाँ गुणस्थान उपशम श्रेणीवाले के लिए अन्तिम (चरम) गुणस्थान कहा जाता है। लेकिन क्षपक श्रेणीवाले के लिए एक भी गुणस्थान अन्तता का सूचक नहीं है, अन्तिम नहीं है। क्योंकि जहाँ तक
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आध्यात्मिक विकास यात्रा