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बीडा उठाया है वह क्या विश्रान्ति करने बैठेगा ? सब काम की पूर्ण समाप्ति और लक्ष्य की पूर्ति न हो जाय वहाँ तक उसे शान्ति - चैन कहाँ से संभव है ? वह क्या करता है और उसे क्या करना है यह बात शास्त्रकार महर्षि स्पष्ट करते हैं ।
अतो वक्ष्ये समासेन, क्षपक श्रेणिलक्षणम् । योगी कर्मक्षयं कर्तुं, यामारुह्य प्रवर्तते ॥ ४७ ॥
अब यहाँ से क्षपक श्रेणी का लक्षणादि संक्षेप से कहते हैं— जो योगी क्षपक श्रेणी पर आरूढ होकर कर्मक्षय करने का कार्य साधता है
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कर्मक्षय की प्रक्रिया -
अनिबद्धायुषः प्रान्त्यदेहिनो लघुकर्मणः । असंयतगुणस्थाने, नरकायुः क्षयं व्रजेत् तिर्यगायुः क्षयं याति गुणस्थाने तु पंचमे । सप्तमे त्रिदशायुश्च, दृग्मोहस्यापि सप्तकम् दशैंता: प्रकृतीः साधुः क्षयं नीत्वा विशुद्धधीः । धर्मध्याने कृताभ्यासः प्राप्नोति स्थानमष्टमम्
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गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकार महर्षी फरमाते हैं कि... प्रान्त्यदेही अर्थात् चरम शरीरी जीव... कि जिसने पहले आयुष्य कर्म का बंध नहीं किया हो वैसे लघु (अल्प) कर्मी हैकम कर्म की सत्तावाला है उस साधक का ४ थे अविरत गुणस्थान पर नरक गति का आयुष्य कर्मक्षय हो जाता है । अब नरकगति आदि में जाने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता है । तथा ५ वे गुणस्थान पर तिर्यंचायु की सत्ता भी क्षीण हो जाती है । और आगे आते आते ७ वे गुणस्थान पर देवायुष्य की सत्ता भी समाप्त हो जाती है। अब ७ वे गुणस्थान पर अप्रमत्त बनने के पश्चात् दर्शनमोह. + तथा अनन्तानुबंधी कषाय की मिलाकर ७ कर्मप्रकृतियाँ मोह की समूल नष्ट हो जाती हैं। क्षय हो जाती हैं। इस तरह १४८ कर्मप्रकृतियों में से ३ आयु + ३ द.मो. + ४ अनं. १० प्रकृतियाँ चली जाती हैं अतः १४८-१० = १३८ शेष रहती हैं। ऐसा क्षपक साधक १३८ कर्मप्रकृतियों की सत्तावाला ८ वे अपूर्वकरण गुणस्थान पर आरूढ हुए साधु मुनिराज कैसे होते हैं ?
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७ वे अप्रमत्त गुणस्थान पर जिसने रूपातीत की कक्षा के धर्मध्यान का काफी - अच्छा अभ्यास किया हो वह पुनः ध्यान योग के अभ्यास से तत्त्वों की प्राप्ति करता
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आध्यात्मिक विकास यात्रा