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इसलिए राग-द्वेष को ही अपर पर्याय के रूप में पर्यायवाची नामकरण भी किया जाय तो उचित ही है। . इसीलिए १२ वे गुणस्थान का जैसे “क्षीण मोह” नाम रखा है वह उचित है । ठीक उसी तरह राग और द्वेष के अपगम (नाश = क्षय) से वीतराग छद्मस्थ नाम रखना भी सार्थक ही है। रागश्च द्वेषश्च = रागद्वेषौ । विगतः रागः यस्मादिति वीतरागः = अर्थात् जिसमें से राग सर्वथा संपूर्ण निकल गया है वह है वीतराग । इसी तरह विगतः द्वेषः यस्मादिति वीतद्वेषः । राग और द्वेष इन दोनों शब्दों को एक साथ रखकर नाम इस तरह बनता है। विगतः रागद्वेषौ इति "वीतरागद्वेष" अर्थात् सर्वथा राग-द्वेष-रहित । वीतरागद्वेष शब्द लम्बा-चौड़ा है। अतः इसका संक्षिप्तीकरण करते हुए वीतराग" शब्द रखा है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वीतराग अर्थात् सिर्फ रागरहित । इतना ही अर्थ नहीं होता है । अपितु अर्थ भाव में तो राग और द्वेष दोनों से सर्वथा रहित यह अर्थ अभिप्रेत है । मात्र उच्चारण में लम्बा होने के कारण बोलने में संक्षिप्त रूप वीतराग शब्द बोला जाता है। तथा जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा भी जाता है। इस तरह वीतराग शब्द शब्दरचना का एक शब्द होते हुए भी अर्थ में राग और द्वेष दोनों भाव से रहित ऐसे अभिप्रेत अर्थ, ग्रहीत अर्थ में प्रचलित है ।
सादि-अनन्त गुणस्थिति- ..
१२ वे क्षीण मोह गुणस्थान पर जीव ने जो वीतरागता प्राप्त की है वह सादि-अनन्त की कक्षा की है । सादि अर्थात् शुरुआत-प्रारंभ और अनन्त अर्थात् अन्तरहित । बस, एक बार प्राप्त होने के पश्चात् जिसका कभी भी अन्त नहीं होता है वैसी सादि अनन्त की वीतरागदशा है। आप पहले पढ ही चुके हैं कि ... कर्म जो भव्यात्मा पर थे वे अनादि-सान्त की कक्षा के थे । अर्थात् जिसकी आदि का कोई ठिकाना नहीं था । अर्थात् आदिरहित थे लेकिन अन्तसहित थे, इसलिए उनका सर्वथा अन्त-नाश हो गया। दूसरी तरफ आत्मा के प्रत्येक गुण जो अनादि-अनन्त ही होते हैं । सत्ता की दृष्टि से सदा ही
आत्मा में साथ रहते हैं। ऐसे द्रव्यगत गुण सत्ता की दृष्टि से आत्मा में अनादि-अनन्त होते हुए भी... कर्मावृत्त होने के कारण और कर्म भी अनादि-सान्त की कक्षा के (भव्यात्मा के) होने के कारण आत्मा के गुण-अनादि सान्त दबे हुए-आच्छन्न ढके हुए ही रहते हैं। आच्छादित ही रहते हैं । इसलिए अनादि-सान्त कर्म का अन्त = नाश होते ही आत्मगुणों
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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