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में ४ थे क्रम पर रहते हैं। यहाँ आठों कर्म की सत्ता निर्जरा तथा उदय–वेदन रहते हैं। बंध आयु के सिवाय ७ का तथा उदीरणा भी ८ या ७ की रहती है। दूसरा सास्वादन गुणस्थान
१४ गुणस्थानों में सास्वादन नामक गुणस्थान की दूसरे क्रमांक पर गणना की गई है। इसका नाम ही ऐसा रखा गया है कि
“आसादनं सम्यक्त्वविराधनं सह आस्वादनेन वर्तत इति सासादनो, विनाशित सम्यग्दर्शनोऽप्राप्तमिथ्यात्वकर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यात्वाभिमुखः सासादन इति भण्यते।”
जो सम्यक्त्व की विराधनासहित है उसे सासादन कहते हैं । जो जीव सम्यक्त्व के ४ थे गुणस्थान से गिरा हुआ है और जिसने मिथ्यात्व की भूमि का स्पर्श अभी नहीं किया हो अर्थात् सम्यक्त्व को छोडने, वमन करने और मिथ्यात्व को पाने के पहले की अवस्थाविशेष है वह सास्वादन की है।
आदिमसम्मत्तद्धा समयादो छावलित्ति वा सेसे।
अणअण्णवरूवयावो णासियम्मोत्ति सासणक्खोसो।। गोम्मटसार के जीवकाण्ड में कहते हैं कि... स + आसादन = सास्वादन । स = सहित । आसादन = विराधना । विनाश = घात । स + आसन = सासन । असन = सम्यक्त्व की विराधना, सम्यक्त्व विराधक परिणाम सासन है । ४ थे गुणस्थान से सम्यक्त्वरूपी शिखर से नीचे गिरनेवाले पतित मिथ्यात्व रूप भूमि के सन्मुख दशा को सासादन कहते हैं। उपशम सम्यक्त्व
अनादिकालसंभूत-मिथ्याकर्मोपशान्तितः ।
स्यादौपशमिकं नाम, जीवे सम्यक्त्वमादितः ।। १० ।। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की जो पहले काफी विचारणा कर चुके हैं उसको आप पुनः स्मृतिपटल पर लाइए... आपको ख्याल आएगा कि.. अनादि काल से आत्मा पर लगे हुए जो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि करणों के अथाग पुरुषार्थ द्वारा अनादिकालीन राग-द्वेष की निबीड ग्रन्थि का भेदन करके सर्वप्रथम जिस सम्यक्त्व को जीव ने पाया था वह उपशम नामक सम्यक्त्व था । यहाँ भी
क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
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