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बन जाता है । सिद्ध के लिए कोई गुणस्थान ही नहीं है । वे गुणस्थानातीत हैं परन्तु अनन्त गुणों के स्वामी हैं। गुणस्थानों पर आकर वैसा बनना पडता है। और वैसा बनकर इन गुणस्थान पर आना पडता है।
भावात्मक एवं द्रव्यात्मक दोनों मार्ग है इन गुणस्थान का । द्रव्यात्मक बाह्यस्थिति यह राजमार्ग है । पहले मिथ्यात्व के सोपान से आगे बढा हुआ साधक चौथे गुणस्थान पर आकर तत्त्वों की श्रद्धावाला दर्शन-पूजा-पाठ, यात्रा, जपादि करनेवाला बाह्य चिन्हों से युक्त बनता है । ५ वे श्रावक के गुणस्थान पर... व्रतधारी, नियमधारी श्रावक बनता है । सामायिक प्रतिक्रमण, पौषधादि करनेवाला व्रती बनता है । और आगे छठे गुणस्थान पर आकर दीक्षा-चारित्र अंगीकार कर संसार का त्यागी बनकर, आगारादि छोडकर अनगार-मुनि बनता है । मुनि जीवन योग्य अपनी वेषभूषा बनाकर द्रव्यलिङ्गी बनकर साधु जीवन जीता है । अब १४ वे गुणस्थान पर्यन्त यही द्रव्यलिंग साधुवेष ऐसा ही रहेगा। एक समान ही बना रहेगा। यदि १३ वे गुणस्थान पर जाकर भगवान तीर्थंकर बन जाता है तो यह द्रव्यलिंगरूप वेष भी नहीं रहेगा। फिर खंभे पर एक ही देवदूष्य वस्त्र रहेगा। वह भी कालान्तर पश्चात् नहीं रहता है और ऐसी अवस्था में... निर्ग्रन्थ त्यागी बनकर सर्वथा निर्वस्त्रावस्था में तीर्थंकर की कक्षा में अतिशयों प्रातिहार्यों युक्त बनकर समवसरण में बैठकर देशना दे। और अन्त में १४ वे गुणस्थान पर अयोगी बनकर मोक्ष में चला जाता है । इस तरह १४ गुणस्थान पर बाह्य रूप-स्वरूप किसका कैसा होता है यह ख्याल आ सके अतः लिखा है।
आभ्यन्तर भाव कक्षा में तो मात्र मनोगत अध्यवसायों परिणामों का ही परिवर्तन है। व्यक्ति गृहस्थाश्रमी, घरबारी हो, अपनी वेशभूषा में रहा हुआ हो और ध्यान की धारा में गुणस्थान की श्रेणी चढता ही जाय तो भी अन्त तक पहुँच सकता है । बाह्य द्रव्य वेशभूषा से वह गृहस्थाश्रमी कहलाएगा, लेकिन आभ्यन्तर भावों से उसकी कक्षा बदलती ही जाएगी। गुणस्थान की भूमिका उत्तरोत्तर चढती ही जाएगी। आखिर १३ वे गुणस्थान पर जाकर द्रव्यलिंगी वेषधारी श्रमण बनेगा। इस तरह गुणस्थान पर बाह्य आभ्यंतर की कक्षा का वर्णन यहाँ किया है। किन-किन गुणस्थान पर मृत्यु और आयुबंध? . इन १४ गुणस्थानों की साधना का काल काफी लम्बा-चौडा है । अतः मरना-मृत्यु भी होगी । और यदि मृत्यु होगी तो आगामी आयुष्य बांधकर ही कोई मरेगा? यदि मोक्ष
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आध्यात्मिक विकास यात्रा