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शास्त्रादि की संज्ञा है । द्वादशांगी की संज्ञा है । वैसे “पूर्व" यह भी संज्ञाविशेष है । परिशिष्ट पर्व में पूर्वो के विषय में विशेष परिचय दिया है। जो हाथी प्रमाण संख्या के माप की स्याही से जितना लिखा जा सके उसे १ला पूर्व कहते हैं । ऐसे १४ पूर्व होते हैं । जो क्रमशः १ से दुगुने-दुगुने हाथियों की बढ़ती हुई संख्या के प्रमाण परिमित स्याही से लिखे हुए धर्मशास्त्र हैं। ऐसे पूर्वो का ज्ञाता योगी शुक्ल ध्यान का ध्यानी उपशम श्रेणी का आरम्भक होता है । तथा निरतिचार अर्थात् दोषरहित-निर्दोष चारित्र का पालन करनेवाला होता है। इसी तरह देहस्थिति कैसी होती है ? अतः कहते हैं कि.... प्रथम ३ प्रकार के संहननों से युक्त होता है । १) वज्रऋषभ नाराच २) ऋषभ नाराच, और ३) नाराच । इन तीन प्रकार के ऊँचे-अच्छे संहननों (संघयण) से युक्त उसकी देहरचना होती है।
ये और ऐसे गुणों से युक्त योगी उपशम श्रेणी का प्रारम्भ करता है । ऐसा मत समझिए कि हर कोई भी उपशम श्रेणी को कर सकता है । जी नहीं । ध्यानी-योगी और पूर्वज्ञ ज्ञानी ऐसी योग्यतावाला साधक ही कर सकता है । बस, फरक सिर्फ इतना ही पडता है कि... कर्मप्रकृतियों का संपूर्ण समूल जडमूल से क्षय करने के बजाय उन मोहनीय की कर्मप्रकृतियों के शमन होने पर विश्वास रखकर... या शान्त करके जल्दी से आगे बढ़ जाएं, या फिर आगे-आगे की प्रकृतियों को जल्दी शान्त करने की जल्दबादी के चक्कर में फसकर क्षय की प्रक्रिया के बजाय शमन की ही प्रक्रिया हाथ में लेकर आगे बढ जाता है । अतः वह उपशमश्रेणी का शमक साधक कहलाता है । जडमूल से क्षय करनेवाला क्षपक कहलाता है। उसकी श्रेणी क्षपकश्रेणी होती है । ठीक ऐसे ही उदय में आई हुई कर्मप्रकृतियों का क्षय करनेवाला क्षपक जीव होता है । जबकि उदयगत कर्मप्रकृतियों को सत्ता में दबा देनेवाला शान्त करके आगे बढनेवाला शामक जीव उपशम श्रेणीवाला कहलाता है। . . उपशमश्रेणी में पतन की प्रक्रिया
वृत्तमोहोदयं प्राप्यो-पशमी च्यवते ततः । अधःकृतमलं तोयं पुनर्मालीन्यमश्नुते ।। ४४ ।। अपूर्वाद्यास्त्रयास्त्रयोत्यूर्ध्व-मेकं यान्ति शमोद्यताः।
चत्वारोऽपि च्युतावाद्यं सप्तमं वान्त्यदेहिनः ।। ४५ ।। एक सामान्य दृष्टान्त सभी जानते ही हैं कि... मैला गंदा पानी.. धीरे धीरे शान्त होता है । और कचरा-मैल नीचे बैठता है, और ऊपर ऊपर का पानी साफ-स्वच्छ होता
क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
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