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अभ्यासेन जिताहारोऽभ्यासेनैव जितासनः । अभ्यासेन जितश्वासोऽभ्यासेनैवानिलत्रुटिः ॥१॥ अभ्यासेन स्थिर चित्तमभ्यासेन जितेन्द्रियः । अभ्यासेन परानन्दोऽभ्यासेनैवात्मदर्शनम् ॥२॥ अभ्यासवर्जितैर्ध्यानैः शास्त्रस्य फलमस्ति न ।
भवेन्नहि फलैस्तृप्तिः पानीय प्रतिबिम्बितैः ॥३॥ अभ्यास करते-करते मनुष्य आहार पर भी नियंत्रण पा लेता है । अभ्यास के द्वारा ही वह आसन सिद्धि भी प्राप्त कर लेता है । श्वास–प्राणों को रोकने का कार्य भी कर सकता है । इन्द्रियों को वश में करके जितेन्द्रिय भी अभ्यास द्वारा बना जा सकता है। ध्यानादि का अभ्यास करते करते चित्त की एकाग्रता या मनोविजय भी संभव है। अरे ! प्रयत्न–पुरुषार्थ करते-अभ्यास से तो परमानन्द भी प्राप्त किया जा सकता है । यदि ध्यान के विषय में नियमित अभ्यास किया जाय तो आत्मदर्शन भी साधक कर सकता है । परन्तु अनभ्यासी अर्थात् अभ्यास न करनेवाला साधक शास्त्राधारित ध्यान होते हुए भी कुछ भी फल नहीं प्राप्त कर सकता है । जैसे नदी या सरोवर के किनारे रहे हुए वृक्ष का प्रतिबिम्ब जो पानी में दिखता है उसमें दिखाई देनेवाले फलों से तो पेट भरना जैसे संभव नहीं है वैसे ही शास्त्र में भी ज्ञान, ध्यान, योग, साधनादि सेकडों गहराइयों की सत्य बातें होने के बावजूद भी. अनभ्यासी को क्या लाभ होगा? घर में पडी दवाई की बोतल से आलसी-प्रमादी की बीमारी कैसे मिटेगी? संभव ही नहीं है। शास्त्राधारित अभ्यास करते हुए आचरण में लाकर बार-बार अभ्यास करने पर लाभ प्राप्त हो सकता है । अन्यथा • नहीं। यह अच्छी तरह समझकर क्षपक श्रेणी का साधक क्षपक पहले के गुणस्थानों में धर्मध्यान का अभ्यास करके ८ वे गुणस्थान पर आकर ध्यान की धारा में तीव्रता लाकर आगे बढता है । अब शुक्लध्यान साधता है।
. तत्राष्टमे गुणस्थाने, शुक्लसद्ध्यानमादिमम्।
ध्यातुं प्रक्रमते साधुराद्यसंहननान्वितः ।।५१ ॥ ८ वे गुणस्थान में आकर क्षपक महात्मा जो ६ में से प्रथम २ ऊँचे संहनन (१ वज्रऋषभनाराच और २ ऋषभनाराच) का धारक योगी शुक्लध्यान में प्रवेश करता है। शुक्लध्यान के यद्यपि ४ चरण हैं । लेकिन इनके प्रथम चरण में शुक्लध्यान की प्रक्रिया का प्रारंभ होता है । ध्यान में स्थिरता लाने के लिए....आसनादि की सिद्धि भी करता है
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आध्यात्मिक विकास यात्रा