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सिद्धावस्था की प्राप्ति के अत्यन्त निकट आ जाता है । यद्यपि शुक्लध्यान प्रथम चरण तक प्रतिपाती स्वरूपी है, अर्थात् आकर पुनः चला जानेवाला है फिर भी एकबार आकर इतनी अद्भुत विशुद्धि कराता है कि जिससे कई कर्म प्रकृतियाँ जडमूल से क्षय करके आगे के गुणस्थान पर आगे आगे बढ़ता है। ___८ वे अपूर्वकरण गुणस्थान पर रहा हुआ योगी निद्रा, प्रचला, देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, शुभ विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, शुभग, सुस्वर, आदेय, वैक्रिय शरीर,आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियागोपांग, आहारक अंगोपांग, प्रथम संस्थान, निर्माण नाम, पराघात और श्वासोच्छ्वास इन ३२ कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है । इनका अभाव हो जाता है । इनमें निद्रा और प्रचला ये २ दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ है जबकि ३० कर्मप्रकृतियाँ नाम कर्म की हैं। इस तरह २ + ३० = ३२ कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है । इनका अभाव होने के पश्चात् २६ कर्मप्रकृतियाँ ही शेष रहती हैं। अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त इन ३८ अन्तिम तीन संहनन की तथा सम्यक्त्व मोहनीय की इन ४ का अभाव होने से ७२ कर्मप्रकृतियों का वेदन यहाँ करता है। तथा १३८ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में अभी भी पडी रहती हैं। अब गुणस्थान के सोपानों पर आगे बढ़ता है। नौंवा अनिवृत्ति बादर गुणस्थान__. समान समयावस्थित-जीव-परिणामानां निर्भेदन वृत्तिः निवृत्तिः ।
अथवा-निवृत्तिावृत्तिः न विद्यते निवृत्तिर्येषां ते अनिवृत्तयः॥ अनिवृत्ति शब्द की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या लिखते हुए कहते हैं कि . . समान–समयवर्ती जीवों के परिणामों की भेद-रहित वृत्ति को निवृत्ति कहते हैं । अथवा निवृत्ति शब्द का अर्थ व्यावृत्ति भी है । अतएव जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती उन्हें भी अनिवृत्ति कहते हैं।
___ एकम्मि कालसमए संठाणादीहिं जह णिवलृति ।
ण णिवटुंति तहच्चिय परिणामेहिं मिहो जेहु होंति अणियट्ठिणो ते पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा।
विमलयर झोण-हुयवह-सिहाहिं णिव कम्मवणा गोम्मटसार जीवकाण्ड में लिखते हैं कि...अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त मात्र काल में से आदि, मध्य या अन्त के एक समयवर्ती अनेक जीवों में जैसे शरीर की अवगाहना
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आध्यात्मिक विकास यात्रा