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२) पदस्थ ध्यान का स्वरूप
पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते । तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः ॥ ३७/१ ॥
ज्ञानार्णव ग्रन्थकार पदध्यान की व्याख्या करते हुए बताते हैं कि पवित्र मंत्रों के अक्षर स्वरूप पदों का आलम्बन करके जिसका योगी महापुरुष चिंतन करते हैं उसे अनेक नयों के पार पहुँचनेवाले योगीश्वरों ने पदध्यान कहा है । मन्त्राक्षर, मन्त्रबीज पवित्र पद है, अतः पवित्र पदों का आलंबन लेकर जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थ ध्यान कहा है । इसमें
श्रीं अर्हं आदि बीज मंत्र हैं । मन्त्राक्षरों से पद बन जाते हैं। नैं यह बीजमन्त्र पंचपरमेष्ठी का वाचक है । अरिहंत का - 'अ', सिद्ध- अशरीरी का भी 'अ', आचार्य का 'आ' उपाध्याय
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का- 'उ' तथा साधु-मुनि का 'म्' इस तरह पाँचों परमेष्ठी के वाचक इन पंचाक्षरों का सम्मिलित स्वरूप नँ है । इसमें पांचों परमेष्ठियों की स्थापना है। उसकी आकृति विशेष प्रकार की जैन धर्म में प्रचलित है । अतः इसे इसी स्वरूप में लिखा जाता है। चित्राकृति में निर्धारित स्थान में पाँचों परमेष्ठियों की स्थापना करके ध्यानस्थ योगी ध्यान में दृष्टिबंध
करके ऐसी चित्राकृति मानसचित्र में उपजाए। तथा मानस जाप करते हुए ॐ की ध्वनि का उच्चार करे । और मन एकाग्र करके नंकार में लगाकर स्थिर करे । धीरे-धीरे ध्वनि की धारा
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लय होती जाय और चित्र स्पष्ट होते जाय । पाँचों परमेष्ठियों के वर्णात्मक रंग भी स्पष्ट होते हुए दिखाई दें। ध्याता दर्शन करते हुए आनन्दसागर में स्नान करता रहे।
१४ पूर्वों में विद्याप्रवाद नामक पूर्व में से 'ह्रीं' बीज मन्त्र लिया है । भिन्न स्वरों की मात्राएं चढाकर भिन्न भिन्न बीजाक्षरों की रचनाएँ की हैं। मूल बीजभूत इस मंत्राक्षर में - २४ तीर्थंकरों की स्थापना है। इस तरह आदिनाथ प्रथम तीर्थंकर से लेकर २४ वे भ. महावीर स्वामी तक के २४ तीर्थंकरों की स्थापना करके इस ह्रीं बीजमंत्र को ध्येय बनाया गया है । इसे अपनी ध्यान साधना में ध्येयस्वरूप बनाकर ध्याता मानस चित्र उपसा कर
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ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास”
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