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भी विपरीत अनियम का आचरण करने से जीव का गमन विपरीत दिशा में होता है । यम नियम से विपरीत चलने पर पापों का आचरण होता है । और पापों के आचरण से मन विक्षुब्ध होता है । मन में उद्वेग आदि सब शुरू हो जाते हैं, बढते ही जाते हैं । परिणामस्वरूप चित्त की समाधि के भाव तूट जाते है । अशान्ति और तनाव मन में बढ़ते जाते हैं। फिर आसन प्राणायाम से हजार प्रयत्न करने पर भी चित्त स्थिर नहीं हो पाता है । परिणाम स्वरूप अस्थिरता, अशान्ति बढती ही जाती हैं । अतः यम-नियम अत्यन्त उपयोगी अंग हैं, उनकी उपेक्षा निष्फलता का सबसे बड़ा कारण है । जैसे किसी बच्चे को पाठशाला में अ-ब-क तथा १, २ की गिनति ही न सिखाई जाय और सीधे ही यदि १० वी कक्षा में बैठा दिया जाय तो वह क्या कर पाएगा? वह जीवन में सदा ही निष्फल जाएगा। ठीक इसी तरह यम-नियम का अनाचारी आगे किसी भी प्रकार की सफलता नहीं पा सकता। सर्वथा निष्फल रहेगा।
१) यम का स्वरूप
तत्राहिंसा सत्यास्तेय-ब्रह्मापरिग्रहच यमाः ॥ ३/६ ।। अध्यात्म तत्त्वालोक में १) अहिंसा, २) सत्य, ३) अस्तेयवृत्ति, ४) ब्रह्मचर्य, ५) अपरिग्रह ये ५ यम बताए हैं। आप अच्छी तरह जानते ही हैं कि... संसार में सबसे बडे मुख्य ५ प्रकार के पाप हैं। सभी धर्मों, सभी धर्मशास्त्रों एवं सभी भगवानों ने भी जिनको महापाप कहा है वैसे- १) हिंसा, २) झूठ, ३) चोरी, ४) अब्रह्म = मैथुन सेवन और ५) परिग्रह- अति संग्रह । याद रखिए, समस्त पापों की जड़ें ये हैं। सब पापों के केन्द्र में ये ५ मुख्य हैं । ऐसे पाप करने से मन विक्षुब्ध, चिन्ताग्रस्त रहता है । अतः इन पापों का सर्वथा त्याग करना ही चाहिए। उदाहरणार्थ झूठ बोलने से मन कितना विक्षुब्ध रहता है ? वर्षों तक वह याद आता है। वैसा ही हिंसा के कारण भी होता है । इसलिए इन पापों से त्रस्त मन साधना में कैसे प्रगति करेगा? अतः महान योगियों ने ध्यान योग की साधना में प्रवेश करने के लिए सबसे पहले यम को प्रवेश द्वार बताया है । अतः १) अहिंसा-सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन ५ यमों का पालन करना ही चाहिए। वही साधक सच्चा साधक बन सकता है और आगे साधना में प्रगति कर सकता है। इन यमों को ही ५ व्रत भी कहा है। श्रावक के लिए ये अणुव्रत है, और साधु सन्तों के लिए ये ही पाँचों महाव्रत कहे जाते हैं। वर्तमान काल में इन ५ का तो क्या एक यम का भी कोई ठिकाना नहीं रहता है और सीधे ध्यान करके ध्याता बनना है । ऐसे ध्याता पर कितना विश्वास रखा जाय? और ऐसे अपने आपको समाधिस्थ बताते हैं। ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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