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भावना कहा है । अपने से बडे-वडील गुणवान महात्माओं के गुणों का अनुराग रखने
प्रमोद भावना कहते हैं । गुणग्राही, गुणानुरागी, गुणप्रेक्षी इस भावना से बना जाता है। संसार के दीन-दुःखी - आर्त-पीडित जीवों को देखकर मन में उनके प्रति दया लानी इसे करुणा भावना कहते हैं। संसार में सभी जीव एक समान नहीं होते हैं। संसार में जो भारी कर्म प्रकृतिवाले-पाप करनेवाले जीव हैं, दुष्ट बुद्धिवाले हैं, अनेक बार समझाने पर भी दुष्टता कभी न छोडे, उल्टे क्रोधादि करके उद्धताई व्यक्त करते ही रहे तो ऐसे जीवों के प्रति माध्यस्थ भावना रखनी चाहिए ।
परहित चिन्ता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥
उपरोक्त बात को ही पुनः स्पष्ट करते हैं कि... दूसरों का हितचिंतन करने को मैत्री भावना, दूसरों के दुःख दूर करने की उदार भावना को करुणा भावना, दूसरों के सुख को देखकर भी आनन्द आए उसे प्रमोद भावना, तथा अनेकों के दोषों को देखकर दूर करने
प्रयत्न करने के बाद भी निष्फलता मिलने पर उपेक्षा रखने को माध्यस्थ भावना कहा है । इस तरह इन चारों भावनाओं का चिन्तन करनेवाले अधिकारी कैसे होने चाहिए ? चिंतक के लक्षण, उनका कार्यक्षेत्र स्पष्ट किया है । उसी तरह क्या करना ? तथा कैसे कैसे जीवों को देखकर क्या करना यह भी भावना के क्षेत्र और ज्यादा स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि
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सत्त्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥
संसार अनन्त जीव समूहों का बना हुआ है। इसमें कैसे-कैसे किस-किस कक्षा के किस-किस प्रकार के जीव हैं ? यह कार्य भावना का चिंतन करनेवाला साधक ही अच्छी तरह पहचान सकता है तथा वही उनके प्रति क्या करना यह कर सकता है। सभी जीवों के प्रति सामान्यरूप से मित्रता - मैत्री का व्यवहार करना, गुणवान - गुणीयल आत्माओं के प्रति प्रमोद भावना रखनी, क्लिष्ट अर्थात् जो कष्ट - पीडा - दुःख भोग रहे हो ऐसे दुःखी जीवों के प्रति करुणा रखे । किसी के दुःख के प्रति अपने दिल में दया रखे । स्वयं दयालु बने । तथा संसार में जो विपरीत वृत्तिवाले सही सच्चे मार्ग से उल्टे चलनेवाले हो उनके प्रति सुधारने का प्रयत्न करने के बावजूद भी वे न सुधरे तो माध्यस्थ भावना रखकर उपेक्षा करे. लेकिन... निरर्थक क्लेश- कषाय- कलह या विवाद - संघर्ष न करे । आध्यात्मिक विकास यात्रा