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अध्याय १६
क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
- अनादि-अनन्तकालीन इस अनन्त संसार में अनन्तकाल निर्गमन कर चुकने के बावजूद भी यह जीव जो अनादि काल से कमोपार्जन करता ही आ रहा है, कर्म बांधने का इसका मानों स्वभाव ही बन चुका है। जिन कर्मों के कारण धूतकाल में अनन्तबार दुःखी हुआ, नरक गति के दुःख भोगे, असा अकल्पनीय दुःख भोगे है, फिर भी जब जब पापों . के निमित्त, पाप-प्रवृत्ति सामने आती है कि देखते ही मोहवश जीव का मन ललचा जाता है। अनन्तकाल से इस मोहनीय कर्म के कारण विपरीत एवं विकृत बुद्धि-ज्ञान और मरवाला बनकर मतवाले की तरह दौडता-भागता पाप करता ही रहा । पाप करने में काफी ज्यादा मजा मानता रहा । जैसे बिल्ली को दूध दिखाई देते ही वह पीने के लिए लालावित
हो जाती है लेकिन ऊपर से डंडा मारनेवाला डंडा हाथ में लेकर सामने तैयार ही खडा है वह उसे दिखाई नहीं देता है। ठीक उसी तरह पाप कर्म करनेवाले
जीवों को पाप कर्म करने की प्रवृत्ति में जो मजा आती है, जो सुख मिलता है वही दिखाई देता है, परन्तु नरक गति में परमाधामी का डंडा तो क्या गदा पडेगी यह शास्त्रचक्षु से भी दिखाई नहीं देता है । जैसे दुराचारी-व्यभिचारी परस्त्रीलंपट-कामी को तीव्र काम की संज्ञा में बलात्कार-दुराचारव्यभिचार करने की तीव्र इच्छा होती है । उस समय उसे उस मैथुन सुख की मानसिक गुदगुदीजन्य सुख की तृष्णा के ही विचार आते रहते हैं। परन्तु उस क्षणिक सुख के बाद होनेवाली भारी सजा...शायद शिरोच्छेद या आजीवन के कारावास या फांसी की सजा या मृत्युदंड की किसी भी प्रकार की सजा दिखाई नहीं देती है। वह क्षणिक सुख भोगने के पीछे इतना आतुर हो जाता है कि बस, विचारशून्य होकर ...किंकर्तव्यमूढ होकर...
क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
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