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मैत्री भावना से सबके मित्र बना जाता है । प्रमोद भावना से गुणीयल-गुणवान बना जाता है । करुणा भावना से दयालु बना जाता है। माध्यस्थ भावना से शान्त-निश्चित बना जाता है ।
संसार के समस्त जीवों को ४ विभागों में विभक्त कर दिया गया है । मित्र, गुणवान, दीन, दुःखी तथा भारी पापकर्मी इन सब प्रकार की वृत्तिवाले जीवों का समूह ही यह संसार है। ऐसे संसार में रहनेवाला मनुष्य सामाजिक प्राणी है, जो समाज में ज्ञाति-जाति के . ज्ञातिजनों के बीच ही रहता है । अतः सबके साथ संपर्क - परिचय - व्यवहार में आएगा ही । सबके साथ बोलना - चलना - व्यवहारादि करने ही पडेंगे। ऐसी स्थिति में किसी के भी साथ राग द्वेष न करना पडे, न तो मेरे निमित्त कोई राग-द्वेष करे और न ही किसी के साथ मैं राग-द्वेष- कलहादि करूँ इस तरह इन भावनाओं के चिन्तन का मुख्य उद्देश्य–सही हेतु यही है । इस तरह अध्यात्ममार्ग पर निरंतर आगे बढनेवाले साधक के लिए तो इन भावनाओं का आलंबन लेकर चिन्तन करता हुआ ऐसे जीवों के बीच या साथ रहकर भी आगे बढता रहे । ये भावनाएं अपने स्वभाव को बनाने - बदलने में अत्यन्त ज्यादा उपयोगी - सहयोगी हैं। सच देखा जाय तो महात्मा पुरुषों ने इस - ऐसे संसार के बीच किस तरह जीना ? कैसे जीना ? कैसा बनकर जीना ? कैसा व्यवहार करते हुए जीना इत्यादि व्यवस्था बताई है । भावनाएं मन का विषय है । अतः मन द्वारा ऐसा सुंदर भावनात्मक चिन्तन स्वभाव - मन को बदलकर सुधार कर.. शान्ति - आनन्द से सही ढंग से जीने लायक – पात्र बनाता है । इससे मनुष्य शान्तिपूर्वक निश्चिन्तता एवं संतोष आनन्दपूर्वक संसार में जी सकता है ।
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इस तरह १२ + ४ = १६ भावनाओं का निरंतर चिंतन-मनन साधक को अवश्य ही करना चाहिए । “ भावना भवनाशिनि" कहकर सचमुच भावनाओं को संसार का नाश करनेवाली, क्लेश-क्षय- कलह घटानेवाली - पापादि की प्रवृत्ति घटानेवाली कहा है, यही सही सत्य है । योग्य है ।
इस तरह भावनाएं समस्त संसार को अपना स्वयं का "वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना से बनाने की सुंदर प्रक्रिया है । इन १६ भावनाओं में समस्त संसार के विषय समा जाते हैं । कोई भी विषय अवशिष्ट नहीं बचते । ध्याता अपने ध्यान के लिए जिस तरह व्यापक–व्यापक विषय बनाते हुए विस्तार करता जाता है उसी तरह इन भावनाओं में भी संसार के समस्त विषयों का समावेश हो जाता है। इस तरह देखा जाय तो भावनाएं ध्यान ध्यान साधना से " आध्यात्मिक विकास"
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