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धर्म कैसा है ? क्या स्वरूप है ? सर्व कर्मों का समूल उच्छेद-नाश करने के स्वभाववाला है। धर्म का कितना महान उपकार है । आहा.. शुद्ध आत्म स्वरूप-स्वभाव द्योतक यह धर्म कितना ऊँचा है। ऐसे धर्म प्ररूपक अरिहंत तीर्थंकर परमात्मा एवं गुरु भगवंतों का कितना महान उपकार है ? जड का राग और जीवों का द्वेष इस भावना से नष्ट हो जाता है। क्षमा-समता-नम्रतादि अनेक आत्मगुणों का द्योतक यह धर्म कितना महान है ? श्रुतधर्म, चारित्र धर्मादि कितना कल्याणकारी है ? इत्यादि इस भावना में चितवना।
ये भावनाएं क्रमशः उत्तरोत्तर चढते विषय की हैं । इन भावनाओं का चितवन करना चाहिए। इससे उत्तरोत्तर आत्मा को विशेष विशेष बोध होता है । भावनाएं मन को शान्त करती है। राग-द्वेषों को शमाती है। संसार के स्वरूप, पदार्थों के यथार्थ स्वरूप की वास्तविकता का बोध कराती है । उन्माद में फिरते लोगों को ठिकाने के लिए भावनाएं सहायक हैं । भावनाएं भव विनाशक है । ऐसी भावनाओं को चिन्तवने से ध्यान में काफी अच्छी और शीघ्र ही स्थिरता आती है । तथा ध्यानान्तरिका में भी भावनाएं काम आती है । इस तरह ध्यान से च्युत होते समय भी भावनाओं का चिन्तन उपयोगी सिद्ध होता है । भावनाओं के चिन्तन से साधक पुनः अपनी बाजी संभाल लेता है । चित्त को निर्मल शान्त करके उद्वेग को टालने का काम इन भावनाओं से होता है । अतःसाधक को इनका आलंबन अवश्य ही लेना चाहिए। मैत्री आदि ४ भावनाएं
चतश्रो भावना भाव्या उक्ता ध्यानस्य सूरिभिः।
मैत्र्यादयश्चिरं चित्ते विधेया धर्मसिद्धये ॥ १०७ ॥ आचार्य भगवंत ध्यानदीपिका ग्रन्थ में कहते हैं कि... ध्यान करने के पहले... मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चारों भावनाओं का चिन्तन करना अत्यन्त उपयोगी है । चिर काल तक इन चारों भावनाओं का चिन्तन करना ही चाहिए । रागद्वेष की वृत्तियाँ दूर करने के लिए तथा समस्त जीवों के साथ उचित सौहार्द बढाने के लिए इन चारों भावनाओं का चिन्तन तथा वैसा ही आचरण अत्यन्त आवश्यक है।
मैत्री परेषां हितचिंतनं यद्भवेत्प्रमोदो गुणपक्षपातः ।
कारुण्यमार्ताङ्गिरुजां जिहीपेत्युपेक्षणं दुष्टधियामुपेक्षा ।। पू. विनयविजय महामहोपाध्यायजी शान्तसुधारस ग्रन्थ में लिखते हैं कि... संसार के समस्त जीवों के हित का चिन्तन करना मैत्री भावना का कार्य है । हित भावना को मैत्री ध्यान साधना से “आध्यात्मिक विकास"
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