________________
1
1
था सम्यक्त्व का गुणस्थान आएगा। फिर ५ वां देशविरति गुणस्थान आएगा। इस तरह छट्ठे गुणस्थान पर साधु बन जाने पर भी मुश्किल से छट्ठी कान्ता दृष्टि आएगी । आगे ७ गुणस्थान पर अप्रमत्त बनकर आत्मबोध बढाने पर कान्ता से आगे बढेगा । ८, ९, १०, गुणस्थान सभी ६, ७ दृष्टि पर हैं । १३ वे गुणस्थान पर ७ वीं, ८ वीं दोनों दृष्टियों का प्रकाश पूर्णरूप से विकसित हो जाता है । अतः १३ वे गुणस्थान पर केवली सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा सूर्यचन्द्रवत् तेजस्वी प्रकाशमान है । इसीलिए कहा है कि
११,
चन्देसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवर गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥
1
चन्द्र शब्द और सूर्य शब्द दोनों में बहुवचन का प्रयोग करने से १ चन्द्र या १ सूर्य ग्रहण करना अभिप्रेत नहीं है । अतः बहुवचन से अनेक चन्द्र अनेक सूर्य अभिप्रेत हैं । १३ वे गुणस्थान पर ७ वी प्रभा दृष्टि का बोध सूर्यप्रभावत् है, तथा ८ वी दृष्टि-परा का बोध चन्द्रप्रभावत् है । दोनों दृष्टियाँ पूर्णतः संपूर्णरूप से प्रकाशित हो चुकी हैं। अतः बोध प्रकाश
I
1
अनेक चन्द्रों से भी ज्यादा है । अतः त्रिलोकीश सर्वज्ञ प्रभु अनेक चन्द्रों से भी ज्यादा निर्मल, शीतल, शान्त है। तथा अनेक सूर्य से भी अधिकाधिक तेजस्वी - प्रकाश फैलानेवाले है । केवलज्ञान से प्रभु लोकालोक व्यापी है तथा अनन्त - द्रव्य - गुण - पर्याय के प्रकाशक हैं । तथा समुद्रों में जो अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र से भी ज्यादा जो गंभीर है । ऐसी महान गंभीरता के धारक है । इस तरह दृष्टियाँ संपूर्ण हो गई । दृष्टियों की दृष्टि विकास पूर्ण हो गया । गुणस्थानों की दृष्टियों से भी आत्मा का विकास पूर्ण हो रहा है । तथा योगांगों की दृष्टि से भी अष्टांगयोग में अन्तिम समाधि भाव भी प्राप्त है। यह समाधि शुक्लध्यान के ३, ४ थे चरण में है । १३ वे गुणस्थान पर आरूढ सयोगी केवली भगवान पूर्ण शुक्लध्यानी है । अतः पूर्णध्यानी है। पूर्णदृष्टि है । पूर्ण गुणवान् है । आत्मा के विकास की दिशा में पूर्ण विकसित है । चरम कक्षा की पूर्णता प्राप्त की है। ऐसे पूर्ण योगी पूर्णरूप परमात्मा परब्रह्मरूप है । १४ वे गुणस्थान के पश्चात् तो सिद्ध - बुद्ध बन जाते हैं ।
शुद्ध-बुद्धादि में विकास
इन संक्षिप्त स्वरूप के शब्दों का भी हम नियमित रूप से भाषा में प्रयोग करते ही हैं । परन्तु साधना की दृष्टि से देखने पर इनमें भी गुणस्थानों की क्रमशः विकास की प्रक्रिया स्पष्ट दिखाई देती है । अशुद्ध अवस्था में अनन्त जीव अनन्तकाल तक इस संसार चक्र में परिभ्रमण करते ही रहते हैं । अशुद्ध अवस्था यही मिथ्यात्व की कक्षा है। मिथ्यात्व में
आध्यात्मिक विकास यात्रा
१०८०