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मकान, मालमिल्कत, धन-संपत्ति आदि सब कुछ मैं नहीं हूँ, सच तो यह है कि मैं इन सब से परे-अलिप्त हूँ। मैं तो अजर-अमर-अमल-अनुपम-शब्दातीत-रूपातीततर्कातीत-आत्म द्रव्य हूँ। बस, वही मैं । शेष सभी मैं हूँ तो अहंकार का ही आविष्कार है। जी हाँ ! शरीरादि सब कुछ आदि और अन्त से युक्त स्थूल है। जबकि मैं तो आदि-अन्त रहित चेतन शाश्वत तत्त्व हूँ।
बस, मेरी आत्मा इन शरीरादि समस्त जड पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। ज्ञान-आनन्दमय मैं चेतन हूँ । चांदी आदि वातावरण की असर में काली पडती है वैसे ही मेरी आत्मा भी कर्माणुओं से मलीन काली पडी हुई है । परन्तु वास्तव में वैसी नहीं है। देह और आत्मा का जो एकत्व का अध्यास अनन्त काल से हो चुका है उसे हटाने में यह भावना समर्थ है।
५) संसार भावना- .
४ गति और पाँच जातियों में जन्म-मरण करते रहने रूप अनादि-अनन्तकालीन इस सतत संसरणशील स्वभाव को संसार कहा है । ऐसे संसार का सही स्वरूप चिन्तन करते हुए वास्तविकता समझकर संसार की घटनाओं से हर्षशोक न करते हुए अपने आप को स्थितप्रज्ञ बनाना। कर्मजन्य मोहकर्म से बढने-चलनेवाले ऐसे संसार में पिता-पत्र-पत्नी आदि किसके प्रति मोह तथा संयोग-वियोग में हर्ष-शोक करना? अरे ! आज की कन्या संभव है गत जन्म की पत्नी भी हो और गत जन्म की माता आज इस जन्म में पत्नी बन जाय, तथा पुनः भवान्तर में पुत्री या माता-बहन भी बन सकती है। इस तरह कर्म से बना हुआ यह संसार सदा ही चलता रहता है । इसलिए सभी संबंधों को हम सांसारिक संबंध कहते हैं। ये मोहवश चलते हैं। रागवश बढते-बनते हैं। और द्वेषवश बिगडते हैं । संसार तीनों काल में सदा ही एक जैसा रहा है । और रहेगा। चलता ही आया है और चलता ही रहेगा। इस तरह संसार भावना का चिन्तन करना। ६) अशुचि भावना
संसार में जीवों को सबसे ज्यादा मोह-ममत्व अपनी काया-शरीर पर होता है। अतः शरीर के कारण ही, शरीर को केन्द्र में रखकर ही यह जीव वर्षों से सेंकडों पाप उपार्जित करता रहा है और कर रहा है । अतः इस शरीर के बारे में चिन्तन करना चाहिए कि.. रज-वीर्य से बना यह पुद्गल पिण्ड मांस-रक्त-रुधिर-मज्जा आदि का बना हुआ
ध्यान साधना से “आध्यात्मिक विकास"
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