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दोनों प्रकारों से साधना होती है। मुख्यतः आन, व्यान, प्राण, उदान, समानादि पाँच प्रकार के प्राण होते हैं । भ्रामरी आदि भी कई प्रकार के प्राणायाम दर्शाए गए हैं। वैसे पूरक - कुंभकरेचक के भेद से इसे ३ का भी दर्शाया है । तथा इन ४ के साथ १) प्रत्याहार, २) सान्त, ३) उत्तर, और ४) अधर के साथ मिलाने पर ७ प्रकार भी होते हैं। योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्यजी म. प्राणवायु और मन दोनों को एक साथ समानान्तर बताते हुए कहते हैं कि
मनो यत्र मरुत्तत्र मरुद्यत्र मनस्ततः ।
अतस्तुल्यक्रियावेतौ संवीतौ क्षीरनीरवत् ॥ ५/२ ॥
जहाँ मन हो वहाँ वायु, और जहाँ वायु हो वहाँ मन इस तरह व्याप्ति संबंध से साथ रहते हैं । अतः मन को साधने के लिए वायु को साधना लाभकारी है । इससे मन यथाशीघ्र साधा जा सकता है। जैसे दूध में पानी और पानी में दूध मिले हुए - घुले हुए साथ मिश्रित—संमिश्रित रूप से रहते हैं ठीक वैसे ही मन और वायु भी तुल्य - समान क्रियावाले साथ ही रहते हैं । मन के लिए वायु सीढी की तरह सहयोगी है । अतः प्राणायाम की साधना मन को साधने में काफी अच्छी सहयोगी - उपयोगी है ।
प्राणायाम की इतनी उपयोगी साधना होते हुए भी मोक्ष प्राप्ति में यह पर्याप्त हेतुरूप नहीं है । ऐसा योगशास्त्र में स्पष्ट निरूपण किया है । बात भी सही है - प्राणायाम तो कोई प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यात्वग्रस्त जीव भी कर सकता है । क्यों कि यह तो मात्र बाह्य शारीरिक प्रक्रिया है । मोक्ष के लिए बीजभूत तो सम्यग् दर्शन - ज्ञान - चारित्र - तपादि अनिवार्य अंग हैं। इनकी प्राप्ति से ही मोक्ष सुलभ हो सकता है। हजारों साल तक प्राणायाम करते रहने पर भी सम्यग् दर्शन होना संभव नहीं हैं। इसलिए साधक को आत्मिक संपत्तिरूप सम्यग् दर्शनादि प्राप्त करना अनिवार्य है । बाह्य दृष्टि से मन की एकाग्रता के लिए प्राणायाम उपयोगी जरूर है, लेकिन मन को साधने मात्र से कोई क्या करेगा ? साधे हुए स्थिर किये हुए मन को कहाँ-किसमें लगाएगा ? अतः साध्यतत्त्व तो कर्मक्षयादि है जो निर्जरा से साध्य है । और निर्जरा के लिए संवर तथा संवर के लिए धर्माचरण करना, तथा धर्म में सम्यग् दर्शन - ज्ञानादि साध्य है । धर्म दर्शनादिमय है
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५) प्रत्याहार
इन्द्रियैः सममाकृष्य विषयेभ्यः प्रशान्तधीः । धर्मध्यानकृते तस्मान्मनः कुर्वीत निश्चलम् ॥ ६/६ ॥
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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