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२) नियम
शौचं संतोषश्च तपः स्वाध्यायः प्रभुचिन्तनं नियमाः ।।
शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान अर्थात् प्रभुचिन्तन करना ये ५ नियम के रूप में हैं । शौचादि नियम की आराधना से साधकं को वैराग्य भावना, ममत्व त्याग, सत्त्वबल, मानसिक उल्लास, एकाग्रता, इन्द्रियजय, तथा आत्मस्वरूप को देखने में योग्यता प्राप्त होती है । संतोष से उत्तम सुख, स्वाध्याय से इष्ट देव दर्शन, तप से भिन्न-भिन्न प्रकार की सिद्धियाँ, लब्धियाँ तथा ईश्वर प्रणिधान - प्रभुचिन्तन से समाधि ( धर्मध्यान) की अवस्था प्राप्त होती है । इसलिए यम-नियम को प्रथम स्थान योगांगों में दिया है । यम-नियम की स्थिरता के बाद ही साधक आसनादि में स्थिरता ला सकता है ।
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३) आसन
आत्मजिज्ञासु साधक समाधि सिद्धि के लिए गोदोहिकासन, उत्कटिकासन, वीरासन, पर्यंकासन, सुखासन आदि आसनों से कायोत्सर्ग करते हैं ।
पर्यंकवीरवज्राब्जभद्रदण्डासनानि च ।
उत्कटिका गोदोहिकाकायोत्सर्गस्तथासनम् ॥ ४/ १२४ ॥
पद्मासन, वीरासन, वज्रासन, भद्रासन, दण्डासनादि, उत्कटिकासन, गोदोहिकासनादि विविध प्रकार के आसनों तथा कायोत्सर्गमुद्रा आदि आसनों में स्थिर रहकर ध्यानादि करना चाहिए। वैसे विविध प्रकार के ८४ आसन बताए गए हैं। लेकिन ध्यान-साधना के लिए जो निर्धारित आसन हैं वे ही उपयोगी हैं, जिसमें सुखासन की स्थिति रह सके वही श्रेयस्कर हैं ।
४) प्राणायाम -
आयाम शब्द विस्तार अर्थ में है। प्राण + आयाम = प्राणायाम । प्राणवायु को विस्तरित करना - फैलाना दीर्घ करना यह प्राणायाम है । जिसमें दीर्घ श्वास-लम्बी श्वास लेना फिर कुछ काल तक रोकना, फिर धीरे धीरे छोडना । इस तरह पूरक — कुंभक और रेचक की प्रक्रिया से प्राणायाम किया जाता है । प्राणायाम मन को एकाग्र करने में, निर्विचार स्थिति साधने के लिए उपयोगी सिद्ध होता है । प्राणवायु के आनापान की प्रक्रिया को नासाग्र दृष्टि लगाकर एकाग्रतापूर्वक देखते रहने से भी विचारधारा को रोकने एवं मन की स्थिरता साधने में काफी अच्छी मदद मिलती है। वैसे द्रव्य प्राणायाम और भातप्राणायाम आध्यात्मिक विकास यात्रा
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