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यह वही है इस प्रकार का समरसीभाव-समानरसभाव का एकीकरण, एकत्वमत की प्राप्ति, अपृथक्-अभेदभाव से अपनी आत्मा-परमात्मा में लीन हो जाती है।
इस तरह पिण्डस्थ-पदस्थ-रूपस्थ और रूपातीत की कक्षा के इन चारों प्रकार के ध्यान में क्रमशः आत्मा उत्तरोत्तर प्रगति साधती है।
उत्तरोत्तर प्रगति के चढते सोपान के क्रम से इन चारों ध्यानों को ध्याता हुआ साधक साध्य की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होता है । इसी तरह विकास साधता हुआ ध्याता स्वयं एक दिन ध्येयरूप बन जाता है । ध्येय स्थान पर आरूढ होता है । अब वह ध्याता नहीं रहता है । जैसे इलिका भ्रमरी के ध्यान से एक दिन भ्रमरीपने को प्राप्त हो जाती है, जैसे एक दिन नोकर-मालिक बन जाता है। उसी तरह ध्यान की बलवत्तर साधना से ध्याता–साधक एक दिन भक्त से भगवान बन जाता है । यही ध्यान का सर्वश्रेष्ठ या चरम फल है।
ध्यानरूप भक्ति
भक्त और भगवान के बीच में सेतु भक्ति का बना हुआ है । इसलिए भक्ति ध्यानरूप बननी चाहिए। भक्ति भगवान को ही लक्ष्य बनाकर चलनी चाहिए। भगवान को प्राप्त करने की, पहचानने की, दर्शन करने की, उनमें लीन होने की प्रक्रिया भक्ति में होनी चाहिए। अतः आदर्शभूत ऐसी भक्ति इन चारों ध्यानों का सम्मिलित स्वरूप होनी चाहिए। भक्ति के माध्यम से सामान्य भक्त ध्यान का विश्लेषणात्मक स्वरूप न जानते-समझते हुए भी उन कक्षा के ध्यान के भावों को स्पर्श लेता है । ध्यान की कक्षा का रसास्वाद कर लेता है। इसलिए भक्ति भी आदर्श ऊँची प्रक्रिया है। सालंबन के रूप में परमात्मा सामने बिराजमान है। और ज्ञानरूप से उनकी महिमा गाते गाते प्रभु का परिचय कराती है । अब अपनी आत्मा उनमें लीन-तल्लीन होनी चाहिए। अवधूतयोगी आनन्दघनजी, पू. देवचन्द्रजी, चिदानन्दजी, पू. उपाध्यायजी यशोविजयजी आदि महापुरुषों ने भक्तिगीत रूप
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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