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पर्यकन मया शिवाय विधिवच्छून्यकभूभृद्दरी
मध्यस्थेन कदाचिदर्पितदृशा स्थातव्यमन्तर्मुखम् ॥१॥ चित्त की वृत्तियों का निरोध करके, पांचो इन्द्रियों को भी अच्छी तरह वश करके अर्थात् उनके विषयों में से मन को हटाकर आनापानरूप वायु के संचरण को रोककर, पद्मासन पूर्वक स्थिर होकर धैर्य का आश्रय ग्रहण कर विधिवत् पर्वत की गुफा में एकान्त निर्जन, नीरव शान्ति में निश्चल दृष्टि लगाकर सुविधिपूर्वक निरालंबन ध्यान की दशा मुझे कब प्राप्त होगी? ऐसे मनोरथों का सेवन किया।
चित्ते निचलतां गते प्रशमिते रागाद्यविद्या मदे, विद्राणेऽक्षकदम्बके विघटिते ध्वान्ते भ्रमारम्भके। आनन्दे प्रविजृम्भिते जिनपते ज्ञाने समुन्मीलिते;
मां द्रक्ष्यन्ति कदा वनस्थमभितःशस्ताशयाः श्वापदाः ।।२।। चित्त जो चंचल-चपल था उसका निरोध करने से जो निश्चलता-स्थिरता प्राप्त हो जाती है उसके पश्चात् भ्रान्तिजनक सांसारिक आरंभ-समारंभ के नष्ट होने पर आत्मसुखानन्द के प्राप्त होने पर तथा जिनेश्वर देव संबंधि ज्ञान के स्फुरायमान होने पर वन में ठहरे हुए को मुझे प्रशस्त आशयवाले निर्भय होकर वनवासी पशु-पक्षी कब देखेंगे? अर्थात् पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त जंगल में रहे हुए ध्यानावस्था में मुझे जंगली पशु प्रशस्ताशयवाले होकर कब देखेंगे?
चिदावदातैर्गवदागमानां, वाग्भेषजै रागरूजं निवर्त्य । मया कदा प्रौढसमाधिलक्ष्मीनिवर्त्यते निर्वतिनिर्विपक्षा ॥१॥ रागादि हव्यानि मुहुलिहाने, ध्यानानले साक्षिणि केवलश्री।
कलत्रतामेष्यति मे कदैषा, वपुर्व्यपायेऽप्यनुयायिनी या॥२॥ श्री सूरप्रभाचार्यजी के मनोरथ ध्यानादि के विषय में कैसे थे उस भावात्मक शब्दों के उपरोक्त श्लोक में वर्णित करते हुए लिखा है । कि.... हे प्रभु ! आपके आगमोक्त निर्मल ज्ञानरूप औषध के द्वारा राग-मोह को दूर करके निवृत्ति नियंपेक्ष प्रौढ समाधि लक्ष्मी को मैं कब प्राप्त करूँगा? साक्षीभूत ऐसी ध्यानरूपी अग्नि में राग द्वेष आदि हव्य का हवन करने पर शरीर का नाश होने पर भी साथ रहनेवाली केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी (स्त्री) रूप में मुझे कब प्राप्त होगी?
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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